संगीत के जादू का रहस्य – राजीव कृष्ण सक्सेना

Everyone loves music. We can listen to soulful melodies of Bollywood, amazing ragas, Bhajans or even Western music and pop. But why is the appeal of music so universal? In this article, we would explore the  biological reason for the Magic of music and beats.  Rajiv Krishna Saxena

संगीत के जादू का रहस्य

अभी कुछ दिनों की बात हैं मेरी एक मित्र से बातचीत हो रही थी। इधर उधर की बातें करते हुए संगीत का जिक्र आया | मेरे मित्र ने मुझे यह कह कर अचंभे में डाल दिया कि नाच गाना सब बेकार की चीजें हैं। आखिर गला  फाड़ना, बेमतलब इधर उधर हाथ पांव फेंकना और ठुमके लगाना बेकार की हरकतें नहीं तो क्या हैं ? मतुष्य चिंतनशील् प्राणी  है, उसे संजीदगी से पेश आना चाहिये और इन शर्मनाक हरकतों से बचना चाहिए । मैं मित्र से सहमत नहीं था परंतु मेरे पास उस समय उनकी बातों का प्रतिवाद करने के लिये कोई ठोस तर्क नहीं था |

वैसे संगीत और नृत्य का महत्व जग जाहिर है । हर कंगन को आारसी क्या ? संगीत और नृत्य अगर वास्तव में बेकार होते तो आदि काल से मानव जाति पर इनका इतना प्रभाव क्यों है ? कुछ घुनें कर्णप्रिय  क्यों होती हैं ? क्यों गानों के, संगीत के कैसेट्स लाखों की तादाद में हाथों हाथ बिक जाते हैं? क्यों संगीत की टीवी चैनलें और एफ एम रेडियो इतने  लोकप्रिय हैं ? क्यों दर्द भरे गीत हमें रूला जाते हैं और देशभक्ति के गीत हमारे रौंगटे खड़े कर देते हैं , भुजाएं फड़फड़ा देते हैं ? संगीत के इस जादू का रहस्य क्या है ? मेरे मित्र की बात ने मुझे बस प्रश्न का उत्तर ढूंढने को मजबूर कर दिया | चिंतन और अध्ययन से जो मैं समझ पाया उसे आपके साथ बाटना चाहता हूं ।

संगीत के तीन प्रमुख अंग हैं सुर ताल और छंद । तीनों में अलग अलग जादू दिखाई देते हैं । एक बात गद्य  में कही जाए तो उसका असर इतना नहीं होता । वही बात छंद-बद्ध  कहीं जाए तो इसका असर हजार-गुना बढ़ सकता है । उदाहरण के तौर पर अगर कोई आपको 1857 के स्वाधीनता संगम के बारे में यह बताए कि उस समय अलग अलग प्रांतों के  राजा महाराजा अंगेजों की मनमानी से तंग आ गए थे और गुलामी का जुआ गले से उठा कर फेंक देना चाहते थे तो इस बात का आप पर माध्यमिक असर ही होगा । पर अब यही बात जरा सुभद्रा   कुमारी चौहान की छंदबद्ध कविता में सुनिए:

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी  तानी थी
बूढ़े  भारत में भी आई फिर से नई जवानी थी
गुमी हुई आजादी की कीमत सबने पहचानी थी
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार  पुरानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी
खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी

 

छंद से न केवल किसी बात का असर कई  गुना बढ़ सकता है पर छंद हृदय में घर कर लेते हैं । जो बात छंद में कही गई हो वह जीवन पर्यांत याद रह सकती है । यह बात आप स्वयं परख सकते हैं । बचपन की कितनी बातें आपको याद हैं ? और कुछ याद हो न हो मां की गाई लोरियां बचपन में सुने गीत और कुछ मनपसंद कविताएं आपको अवश्य याद होंगी । हमारे अपने घर में यज्ञ होता था और वेद मंत्र पढ़कर आहूतियां दी जाती थीं । हम बच्चे संस्कृत ठीक से न जानते थे पर सुन सुन कर वे मंत्र हमें कंठस्थ हो गए थे। आज भी कई दशकों बाद जब यज्ञ होता है तो वह वेद मंत्र अपने आप ही मुंह से निकलने लगते हैं ।

छंद की इस ताकत को हमारे देश में आदिकाल से भली भांति  समझा गया है । हमारे पूर्वजों ने अधिकतर ग्रंथों  की रचना मात्राबद्द पद्यों  में की । रामायण महाभारत वेद पुराण और उपनिषद सभी छंदबद्ध  श्लोकों में लिखे गए हैं । लगभग एक हजार बर्ष पूर्व अरब विद्वान अल्बरूनी भारतआया और उसने इस देश की संस्कृति का विस्तृत अध्ययन किया । अल्बरूनी के लेखों में भारतीय लोगों की छंद प्रियता का वर्णन मिलता है। वह लिखता है कि हिंदुओं को अगर किसी विदेशी भाषा में प्राप्य गंध का अध्ययन करना हो तो वे  तुरंत इसका अनुवाद छंदबद्ध  संस्कृत श्लोकों में करने लगते हैं । छंदों मे कही गई बात न केवल आसानी से याद रखी जा सकती है पर ऐसी धरोहर में फिर आसानी से शब्दों की हेरा फेरी नहीं की जा सकती | इससे छंद में निहित संदेश अक्षुण्ण रहता है और किसी के लिये भी मूल मंत्र मे अपनी इच्छानुसार तोड़ मरोड़ करना अत्यंत कठिन होता है । सहस्रो  बर्षों तक हमारी आध्यात्मिक विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी इसी तरह मात्रबद्ध  छंद  सुन सुन कर अथवा अनगिनित व्यक्तियों की स्मृति-मंजूषाओं में सुरक्षित रही । छंद न होता तो यह कैसे संभव होता?

छंद के कृतज्ञ तो हम हमेशा रहेंगे ।  सत्य में भारत एक कवितामय देश हैं । छंद हमारी रग रग में रचा बसा हैं । पर यह प्रश्न फिर भी रहताहै कि छंद के जादू का कारण आखिर है क्या । छंद मात्राबद्ध होते हैं और ताल भी। छंद और ताल का गहरा रिश्ता है। विख्यात चिंतक Will Durant लिखते हैं कि जीवन के लिये सांसों के आने जाने की और दिल के निरंतर धड़कने की ताल अत्यंत आवश्यक है और इन ध्वनियों का क्रमबद्ध   उठना और गिरना हमारे जीवन का अंतरंग हिस्सा है । कह सकते हैं कि यह आंतरिक तालें जीवन का मूल हैं । अगर Will Durant  का कथन सत्य है, जैसा कि प्रतीत होता है, तो हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जीवन की इन्हीं अनिवार्य आंतरिक ताल़ों से संगीत के छंद और ताल की कर्णप्रियता  जुड़ी हुई हैं ,  क्योंकि जग में जो वस्तु जितनी अधिक अनिवार्य होती हैं उतनी ही अधिक वह हमे प्रिय  लगती है।

हम जब संगीत की ताल पर ठुमकते हैं तब एक तरह से अपनी आंतरिक हृदय की धड़कनों का जश्न मनाते हैं । अजकल् छंद-मुक्त कविता लिखने की परंपरा भी बढ़ी है। इस नई कविता के रचनाकार कहते हैं कि जब भावनाओं की लहर आती है तब भावों को जैसे का तैसा व्यक्त करना चाहिए और इसे छंद में बांधने की कोई आवश्यकता नहीं है । यह तर्क ठीक हैं पर छंदमुक्त कविता स्मृति में उस तरह रच बस नहीं सकती जैसे कि छंदबद्ध  कविता । अगर कवि को पाठकों के दिलो दिमाग   पर दीर्घकाल तक राज्य करना हो तो छंद का कोई विकल्प नहीं है।

सुर की भी अपनी महिमा है । विज्ञान का सोचना हैं कि प्राणियों में बोली का विकास अवश्य नर मदाओं में जनन की गुहार के लिये हुआ होगा । बोली से गीत का उदगम्‌ हुआ जिसकी प्रेरणा  निसंदेह प्रेम  से आई । प्रेम-क्रीडा  की अभिव्यक्ति के रूप में नृत्य का विकास हुआ और गीत एवं नृत्य से संगीत का विकास हुआ । महान वैज्ञानिक डारविन का मानना हैं कि सुर हमारी आंतरिक सहज वृत्तियों (instincts) से जुड़े हैं। कोयल आदि पक्षियों के मधुर गीतों से हम परिचित हैं । डार्विन एक गिब्बन  की प्रजाति का भी वर्णन करते हैं जिसके सदस्य कोमल और तीव स्वरों सहित संगीत की सभी सुरध्वनियों को क्रमबद्ध निकाल सकते हैं । उनका कहना है कि शायद संगीतमयी ध्वनियों का उदगम बोलचाल में ध्वनि प्रयोग से भी पहले विकसित हुआ होगा ।

प्राणियों में प्रजनन  वृत्ति   सबसे शक्तिशाली वृत्ति   होती है । जीवन विकासक्रम  में वही  प्रजातियाँ  जीवित रहती हैं जो कि प्रकृति और पर्यावरण  के अनुरूप अपने को ढाल लेती हैं । प्रजनन इसमें एक मूल मंत्र हैं । जो प्रजातियाँ  बदलते परिपेक्ष में भी प्रजनन  द्वारा अपनी संख्या को कायम रख सकती हैं या बढ़ा सकती हैं वही विकास क्रम  में सफल रहती हैं,  वरना डायनोसर प्रजातियों की तरह विलुप्त हो जाती हैं । प्रजनन प्रक्रिया में जो भी गुण सहायक होता है वही उस प्रजाति द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी अपना लिया जाता हैं । उदाहरण के तौर पर अगर किसी प्राणी द्वारा कोई विशेष ध्वनि  करने से प्रजनन क्रिया  में सहायता मिलती हो तो उस जाति में उसी ध्वनि  विशेष का विकास होगा ।

इसी तरह नृत्य जैसे हाव  भाव अगर यौन आकार्षण का कारण बनते हैं जिससे प्रजनन क्रिया को सहायता मिलती है तो ऐसे हाव भाव पीढ़ी दर पीढ़ी मजबूत होते जाएंगे । इसी सिद्धांत से सुरमय ध्वनी का विकास होता गया । सुरों का प्रजनन जैसी शक्तिशाली  वृत्ति से जुड़ना सुरों के विलक्षण जादू का मूल कारण लगता है । यही कारण है कि किसी भी शक्तिशाली भावना के अतिरेक में उसे व्यक्त करने के लिए अगर भाषा का प्रयोग किया जाय तो बह प्राकृतिक रूप में सुरों मे ढल  कर निकलती है । वाल्मीकि नें जब रतिक्रिया  रत कोंच पक्षियों के जोड़े में से एक का व्याघ  के तीर से वध होने पर दूसरे पक्षी का विलाप सुना तो उनके हृदय  में करूणा की अत्यंत बलशाली  तरंग उठी और तब उनके होठों पर सुरबद्ध श्लोक अनायास ही मुखरित हुए ।

हम देखते हैं कि दुख की चरम सीमा में विलाप  भी सुरमय होता है। उस समय यह पता नहीं चलता  कि आदमी गा रहा है कि रो रहा है। हम लोग प्रसन्न  होते हैं तो गाते हैं, दुखी होते हैं तो भी गाते हैं। भावनाओं के तीव्र  वेग को व्यक्त करने के लिये गद्य एक सक्षम माध्यम नहीं हैं । इसके लिए तो गीत-संगीत का माध्यम ही अनिवार्य प्रतीत होता है ।

गीत सुर और ताल से हमारा नाता बेहद पुराना है । संगीत हमे क्यों अच्छा लगता है, नृत्य क्यों लुभाता है और सुर ताल पर हम क्यों थिरकने पर मजबूर हो जाते हैं यह समझने में कठिनाई इसीलिए होती है कि इस  जुड़ाव  का मुख्य कारण मानव जाति के लाखो वर्षों के विकास से संबंध रखता है। हम इसे महसूस तो करते हैं पर समझाने में अपने को असमर्थ पाते हैं । संगीत का महत्व  दिमाग से नहीं जाना जा सकता । यह तो दिल का मामला हैं। और दिल की बात दिल से ही समझी जा सकती हैं दिमाग से नहीं । अब मुझे अपने मित्र से पुना मिलने की प्रतीक्षा हैं। आखिर उन्हें संगीत का रहस्य जो बताना है ।

राजीव कृष्ण सक्सेना

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