प्रवासी भारतीयों की घर वापसी: तब और अब – राजीव कृष्ण सक्सेना

In view of rising salaries and better facilities in India, going to USA purely on monitory considerations is gradually losing its charm. Yet in intellectual challenge and satisfaction, India is still way behind the Western world and that gap is unlikely to be filled in next several decades. In the present article, altered considerations for living in USA and issues involved in returning to India have been discussed. Rajiv Krishna Saxena

प्रवासी भारतीयों की घर वापसी: तब और अब

मैं और मेरी पत्नी पहले पहल अमरीकी नेशनल इन्स्टीच्यूट आफ हैल्थ के विजिटिंग प्रोग्राम के अंतरगत अमरीका 1978 में गए थे। वह प्रवास छः साल का रहा जिस दौरान हम एक बार भी भारत नहीं गये। फिर  भारत वापस जाने का मन बनाया यद्यपि उन दिनों भारत वापस लौटना एक आश्चर्यजनक‚ लगभग बेवकूफी की बात मानी जाती थी। हमारे अधिकतर मित्र वापस लौटने के हमारे निर्णय को ठीक नहीं समझते थे। पर हमने सोचा कि अब नहीं गए तो कभी न जा पाएंगे और हो सकता है कि बाद में पछताएं। बच्चे अभी छोटे ही थे और हमे मालूम था कि अगर वे अमरीका में ही बड़े हो गए तो फिर भारत लौटना असंभव हो जाएगा। ऐसी स्थिति पहुंचे‚ इससे पहले एक बार भारत को आजमा लेना चाहिये ऐसा हमने सोचा। हम दोनों का शोध कार्य अमरीका में बहुत अच्छा चला था एवं हमने बहुत से शोधपत्र विभिन्न वैज्ञानिक जरनल्स में छापे थे। इसी कारण अगर भारत में मन नहीं लगा तो अमरीका वापस आने में हमे अधिक कठिनाई नहीं होगी‚ यह हम जानते थे। शायद यह भी एक कारण था कि हम भारत वापसी का जोखिम उठाने को तैयार थे। भाग्यवश भारत में हम दोनो को एक नए भारतीय वैज्ञानिक शोध संस्थान में नौकरी भी मिल गई और हमने सामन बांधना आरंभ कर दिया।

भारत लौटने पर पहला साल बहुत खराब बीता। दक्षिणी दिल्ली में एक छोटा सा फ्लैट हमने किराए पर लिया। मारुति कार अब तक बाजार में नही आई थी। हमने एक स्कूटर खरीदा जिस पर उन दिनों के चलन अनुसार हम दो और हमारे दो फिट हो जाते थे। बच्चों को स्कूल में भरती कराया पर वे कक्षा के दूसरे बच्चों  के समान आक्रामक  (aggressive)  न थे और इस कारण से स्कूल में समस्या रहने लगी। स्कूल के बाथरूम ऐसे थे कि हमारे बच्चे उन बाथरूम्स में घुसना तक न चाहते थे। घर पर पानी की मारा मारी रहती थी और सुबह शाम थोड़े से समय के लिये ही नल में पानी आता था। बिजली अक्सर गुल हो जाती थी और पंखा बंद होते ही मच्छरों की बीन कानों में गूंजने लगती थी। गर्मी की रातों में पसीना बहाते और मच्छरों का पोषण करते हुए हम करवटें बदलते और उस समय को कोसते जब भारत वापसी का निर्णय लिया था। शोध की सुविधाएं बहुत कम थीं और प्रयोगशाला में काम ना के बराबर ही होता था। उन्हीं दिनों प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके सिख अंगरक्षकों द्वारा हुई और दिल्ली में सिखों के विरुद्ध दंगे फैल गए। हमारा मकान मालिक सरदार था और रोज रात इसी चिंता में बीतती कि कहीं दंगई घर में न घुस आएं या फिर आग न लगा दें। घर पर परेशानी‚ बाहर परेशानी‚ बच्च्चें के स्कूल में परेशानी और शोधकार्य में नाकामी। कहां फंस गए आ कर दिन रात यही सोचते कटते। समय आ गया था कि इस प्रयोग को समाप्त कर वापस अमरीका चला जाए। जिस अमरीकी संस्थान में हमने कार्य किया था बह हमें वापस लेने को तैयार भी था।

पर कहते हैं कि “When the going is tough, the tough gets going!” । अचानक स्थिति में सुधार होने लगा। मुझे अचानक दिल्ली स्थित एक विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर का पद मिला और तभी एक बहुत बड़ी राशि शोध कार्य के लिये भारतीय सरकार से मिली। मैं अपनी शोध प्रयोगशाला स्थापना में एवं पठन पाठन में व्यस्त हो गया। अमरीका में हुई हमारी बचत अच्छी खासी थी और आज के मुकाबले जमीन की कीमतें उस समय बहुत कम थी। पत्नी के कहने से दिल्ली के सीमा स्थित एक गांव में हमने एक खेत खरीद लिया। उस तीन एकड़ जमीन में पेड़‚ शाक सब्जी‚ फूल और घास लगवाने में हमारे वीकेंड्स  बीतने लगे। मारुति कार मार्किट में आई और  भाग्यवश कार की लाटरी में हमारा नंबर शीघ्र ही आ गया।छोटी सी लाल चमकती हुई मारुति में बैठ कर बच्चे फूले न समाए। विश्वविद्यालय में मुझे रहने के लिये घर भी मिल गया और अमरीका वापस लौटने का ख्याल दिल से निकल गया।

पर अमरीका से मेरा नाता न टूटा। विश्वविद्यालय की नौकरी में छुट्टी की सुविधा बहुत रहती है।    गर्मियों की तीन महीने की छुट्टियों में कहीं भी जा सकते हैं और मैं अक्सर किसी अमरीकी संस्थान में कार्य करने चला जाता। लंबी सबैटिकल छुट्टियां भी मिलती रहीं जिनका प्रयोग भी मैं अमरीकी संस्थानों में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य करने के लिये करता रहा। समय पंख लगा कर उड़ने लगा। बच्चे बड़े हुए और माता पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए वे भी अमरीका और फिर दूसरे देशों में  पहुंच गए। आज जब कि हमे भारत लौटे हुए 48 वर्ष बीत चुके हैं हम अपना घोसला खाली पाते हैं। दिल्ली में एसी जड़ें जम चुकी हैं कि अब यहां से छोड़ कर जाने का मन नहीं करता।

तीस साल पहले जब हम अमरीका पहली बार गये थे तब और आज के हालात में बहुत अंतर हैं। भारत लौट आना आजकल इतनी अजीब बात नहीं रह गई है जितनी कि पहले हुआ करती थी। बहुत से प्रवासी भारतीयों ने भारत वापस आना शुरू भी कर दिया है।भारत की अर्थ व्यवस्था में तेजी से सुधार आ रहा है। वेतनों  में बहुत वृद्धि हुई है जो कि इसी समय में अमरीका में हुई वेतन वृद्धि से बहुत अधिक है। रुपया भी अचानक अमरीकी डालर के मुकाबले बढ़ रहा है। निचली तालिका में कुछ आंकड़े हैं जो तीस साल पहले और आज के आर्थिक माहौल को दर्शाते हैं।

इन आंकड़ों से कई महत्वपूर्ण बातें सामने आती हैं।  पिछले 40 वर्षों में अमरीकी वेतनों में मात्र चार या पाँच  गुना वृद्धि हुई है जब की भारत में यह वृद्धि 50 गुना है।1978 में एक वर्ष के अमरीकी वेतन से दिल्ली में 2 फ्लैट खरीदे जा सकते थे। आजकल उसी फ्लैट को खरीदने में 4 से 6 साल का अमरीकी वेतन लग सकता है। भारतीय वेतनों की अमरीकी वेतनों से तुलना करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि डालर विनिमय मूल्य जो कि आजकल 82 रुपये है वह वास्तविकता को नहीं दर्शाता। 82 रुपये भारत में जो खरीद सकते हैं वह अमरीका में एक डालर से नहीं खरीदा जा सकता। डालर का वास्तविक विनिमय मूल्य लगभग 10 रुपये बनता है जिसे परचेज पावर पैरिटी कहते हैं। यानि की अमरीका में एक डालर जो खरीद सकता है वह भारत में लगभग 10 रुपये में खरीदा जा सकता है।  अगर इस विनिमय दर को लिया जाए तो भारतीय और अमरीकी वेतनों में इतना अंतर नहीं रह गया है जितना तीस वर्ष पहले था। एक   युनिवर्सिटी प्रोफैसर का वेतन भारत में आजकल लगभग 15 लाख रुपये प्रतिवर्ष है। परचेज पावर पैरिटी को देखते हुए यह वेतन लगभग वही होगा जितनी की एक अमरीकी प्रोफैसर का वेतन।

पर वेतन ही सभी कुछ नहीं होता। जिन समस्याओं का वर्णन मैंने ऊपर किया था. उनका सामना कुछ हद तक आज भी भारत लौटने वालों को करना पड़ सकता है यद्यपि बिजली पानी की समस्याएं आज इतनी विकट नहीं हैं जितनी कि पहले थीं। तेजी से बढ़ता प्रदूषण‚ सड़कों पर मोटरकारों की अनंत भीड़ और सब ओर फैली एक अजीब सी  देसी अराजकता लौटने वाले प्रवासियों को विचलित कर सकती हैं। आर्थिक दृष्टि से आजकल भारत वापस लौटने वाले प्रवासियों के लिये अपनी अमरीका मे की हुई बचत से भारत के महानगरों में घर खरीद पाना कुछ एक दशकों पहले लौटने वाले प्रवासियों के मुकाबले कहीं अथिक कठिन होगा।पर इसमें भी संदेह नहीं कि पैसा होने पर आजकल भारत में वह सभी सुख सुविधाएं खरीदी जा सकती हैं जो कि पहले मात्र पश्चिमी देशों में ही उपलब्ध थीं। भारत एक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था है जिसकी अपनी समस्याएं होती हैं जो कि अमरीका जैसे समृद्ध देश में नहीं होतीं। पर एक तरह से सोचें तो  भारत में रहने में जो luxury है वह कई  पश्चिमी देशों में नहीं है । यहाँ रहने का मजा कुछ और ही है । यहाँ का support system लाजवाब  है ।  घर और बच्चों की देख रेख के लिए  आराम से domestic help मिल जाती है  जो कि विदेशों में संभव नहीं है । यह  young working professionals के लिए एक वरदान ही है !

आर्थिक समीकरण तेजी से बदल रहे हैं और मात्र आर्थिक दृष्टि से अमरीका जाना अब उतना सार्थक नहीं रहा जितना कि कई दशक पहले था। पर व्यवसाइक अनुभव के लिये अमरीका जाना आज भी बहुत सार्थक है। अमरीका में काम करने का विशेषतः वैज्ञानिक शोध कार्य और अन्य बौद्धिक कार्यों  के क्षेत्र  में जो मजा है और जो सुविधाएं हैं उसको पूर्णतः भारत पहुंचने में अभी मेरे विचार में कई दशक लगेंगे। अगर आप डाक्टर‚ इंजीनियर‚ वैज्ञानिक या सामाजिक वैज्ञानिक हैं या कला व लेखन के क्षेत्र में हैं और अपने प्रौफैशन में खूब उंचा उठना ही आपके जीवन का मुख्य ध्येय है तो अमरीकी प्रवास का आज भी कोई विकल्प नहीं है। सामाजिक बंधनों को काट कर और पुराने रीतिरिवाजों को नजरअंदाज कर के जो आधुनिक चिंतन धारा मानव जाति को तेजी से एक अनजानी दिशा में लिये जा रही है और जिससे आज का युवावर्ग पूर्णतः सम्मोहित दिखता  है‚ उस चिंतन धारा का मूल स्रोत अमरीका ही है और चाहे आर्थिक दृष्टि से अमरीका जाना सार्थक न भी हो पुरातन श्रंखलाओं को तोड़ता नवचिंतन युवाओं को वहां निश्चित ही आकर्षित करता रहेगा।

अपने देश और अपने समाज में अपने रीतिरिवाजों के साथ रहने का मजा कुछ और ही है। पहले प्रवासी वापस आने में हिचकिचाते थे क्योंकि भारत में न तो पैसा था न सुविधाएं। अब नए आर्थिक माहौल में पैसा और सुविधाएं दोनों स्वदेश में ही प्राप्त हो सकते हैं। बढ़ती कीमतों के कारण आज भारत में जमीन या  घर खरीदना कठिन अवश्य है पर वह भारत में काम करने वालों एवं प्रवासियों दोनो के लिये ही एक कटु सत्य है।अगर आपके पास  पैतृक  घर संपत्ति है तो आपको बधाई। आज के युग में यह एक बहुत बड़ी नेयामत है।

राजीव कृष्ण सक्सेना 

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