तत्व चिंतन भाग 6: भारत कितना ज्ञानी कितना विज्ञानी – राजीव कृष्ण सक्सेना

There are two paths to ultimate Truth. One is the extrovert western path of pursuing physical and biological sciences that comprises intense analytical study of the nature around us. This path creates material comforts as byproducts but also generates internal and external turmoil in society and the environment. The other is the introvert and spiritual Indian path of intense self analysis, meditation and yoga that lays little emphasis on creature comforts but generates internal and external peace and harmony as byproducts. After getting independence, India seems to be adopting the western route of science to derive better living standards for its masses. While this approach may be the need of the hour, we have to be very careful in taking this approach because total reliance on sciences while neglecting our own original heritage and ethos of spirituality will be counter-productive and harm the man-kind in the long run. Rajiv Krishna Saxena

तत्व चिंतन भाग 6: भारत कितना ज्ञानी कितना विज्ञानी  

भारतीय विज्ञानिक  चांद पर यान भेजने की तैयारी में हैं। यान का नाम होगा चंद्रयान-प्रथम । बड़ा बढ़िया नाम हैं। अगर यह प्रथम यान है तो जाहिर हैं कि इसके बाद चंद्रयान द्वितीय  और तृतीय भी होंगे । यानि कि हमने चांद पर जाने को कमर कस ली  है । विज्ञान के क्षेत्र में भारत विश्व में अपनी साख जमाने का प्रयल कर रहा है। हम संचार उपग्रहों का सफल  प्रक्षेपण  कर रहे हैं । आणुविक  शक्ति परियोजनाओं को सफलता से कार्यान्वित  कर रहे हैं । साथ ही साथ हम कंप्यूटर प्रोद्योगिकी में विश्व-व्यापी नाम  कमा रहे हैं । एक बड़े जोशीले गीत के शब्द याद आ रहे  हैं ।

आज पुरानी जंजीरों को तोड़ चुके हैं,
क्या देखें उस  मंजिल  को जो छोड़ चुके हैं
चंद  के दर  तक जा पहुंचा है आज जमाना,
नये जगत से  हम भी नाता जोड़ चुके हैं
नया दौर  हैं, नई उमंगें, अब है नई जवानी-
हम हिंदुस्तानी, हम हिंदुस्तानी...

 

 

आधुनिक विज्ञान एक नवीन शक्ति के रूप में पिछले कुछ सौ सालों  से पूरे विश्व पर छा गया है ।आजादी मिलने के बाद नेहरू जी के नेतृत्व में हमने विज्ञान को  गरीबी और पिछड़ेपन को दूर करने की रामबाण-औषधी के रूप में अपनाया । इसका कारण सीधा था | विश्व के पश्चिमी देश बहुत सम्पन्न  थे और उनकीआर्थिक सफलताएं विज्ञान और औद्योगिकी के विकास से ही उपजीं थीं । नेहरू जी ने कहा कि कल,कारखाने, नदियों पर बांध एवं पन-बिजली  योजनाएं ही भारत के नये मंदिर हैं । भारत में नये-नये विज्ञानएवं औद्योगिकी संस्थान खोले गए और नई भारतीय पीढ़ी विज्ञान के अध्ययन में जुट गई । यह कहा जाने लगा कि भारत वैज्ञानिकों और इंजीनियरों की संख्या में विश्व में तीसरे स्थान पर आ गया है। यह सचमुच ही एक नई दिशा थी और इसके परिणाम स्वरूप आज उपरोक्त गीत ठीक ही लगता है । पुरानी जंजीरों को तोड़ कर हम नये जगत से नाता जोड़ रहे हैं । पर यह पुरानी जंजीरें आखिर हैं क्या और क्या बे यथार्थ में टूट सकती हैं? आइये इसका कुछ जायजा हें ।

भारतीय संस्कृति एक अत्यंत प्राचीन संस्कृति हैं । इस  देश का उदगम्‌ प्राचीनता की अनजानी गहराइयों में हैं जिसकी जानकारी हमे आज नहीं है। फिर भी सिंधु-घाटी सभ्यता को मिला  कर हमारा इतिहास लगभग दस  हजार साल पुराना तो है ही और यह विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है । फिर एक अत्यंत महत्वपूर्ण सत्य यह है कि भारतीय सभ्यता ही एक ऐसी सभ्यता है जो कि हजारो सालों से अक्षुण्य है और विघ्न  बाधाओं और कठिनाइयों के बावजूद लगातार अटूट  चली  आरही है । उदाहरण के तौर पर मिश्र और सुमेर सभ्यताएं भी अत्यंत प्राचीन थीं पर वे  नष्ट हो गईं । आधुनिक मिश्र निवासी एवं ईराकी समाज अपनी प्राचीनता से लगभग अनिभिज्ञ थे । मिश्र के पिरामिडों की खोज के पश्चात और पुरातत्व विज्ञान की महत्वपूर्ण उपलब्धियों के फल स्वरूप हमें धीरे-धीरे इन सभ्यताओं के बारे मे जानकारी प्राप्त हुई। दूसरी ओर भारतवासी अपनी पाचीन सध्यता से आज भी मजबूती से जुड़े हुए हैं। रागायण और महाभारत की कथाएं बच्चा बच्चा जानता है।

हमारे पुरातन समाज ने अपने दार्शनिक विचारों को गेय श्लोकों में बांधा और फिर मात्र स्मर्ण-शक्ति से उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखा ।  यह एक ऐसी अदभुत उपलब्धि थी जो कि विश्व में अद्वितीय है ।हम कथा कहानियों में अक्सर सुनते हैं कि अमुक राजा या अमुक  व्यक्ति सत्य की खोज में सब घरबार छोड़ कर निकल गया। आज भी भारत में यह प्रथा  चली  आ रही है और साधू सन्यासी बन जानेका रिवाज आज भी कायम है । अधिकतर भारतीय लोगों का रुझान उमर बढ़ने पर अनायास ही आध्यात्मिकता की ओर होता है। कुंभ मेलों  में करोड़ो की तादाद में भक्तों का आना हो या धार्मिक टीवी चैन्लस की अभूतपूर्व सफलता, सभी भारत के प्रचीन आध्यात्मिक संस्कारों से जुड़ी सच्चाइयां हैं जो दर्शाती हैं कि भारत ने अभी भी अपनी प्रचीन धरोहर को सहेज कर रखा है । विवेकानंद कहते थे  कि विश्व में हर समाज की एक आत्मा-विशेष होती है जो कि उसकी आंतरिक शक्ति होती है। अगर बह कुम्हला जाए और उसकी विश्व में आवश्यक्ता न रह जाए तो धीर-धीरे वह समाज और वह सभ्यता लुप्त हो जाते हैं । मिश्र इत्यादि सभ्यताओं का ह्रास  इसीलिये हुआ | पुन: विवेकानंद के अनुसार भारत की वह आत्मा, वह जीवन-दायिनी आंतरिक शक्ति, आध्यात्म है। इसी शक्ति के कारण हमारी सभ्यता हजारों  बर्षो से लगातार जीवित है। मोहम्मद इकबाल  अपनी प्रसिद्ध  कविता “सारे जहां से अच्छा” में कहते हैं कि –

यूनान, मिश्र , रोमा  सब मिट गये जहाँ से ,
अब तक मगर है बाकी नामों निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों  रहा है दुशमन दोरे   जहां हमारा

यह “कुछ बात” वही आंतरिक आध्यामिक शक्ति है। यही शक्ति हमें सहस्रो  वर्षों से बचाती चली  आ रही है । भारत के  विभिन्‍न प्रांतों  में  सकड़ों  भाषाएं, रीति रिवाज और खानपान प्रचलित हैं पर आध्यात्मिकता की गोंद ही हम सब को एक ‘सूत्र में पिरोए हुए है । इस देश के अस्तित्व की मूल धूरी अध्यात्म  ही हैं। अगर इसका कभी नाश हुआ तो भारतीय सभ्यता भी अन्य सभ्यताओं की तरह लुप्त  हो सकती है। हमारा समाज छितरा सकता है । टूट सकता है ।

अब फिर से पुरानी जजीरों की बात पर आते हैं । आध्यमिकता की शक्ति जिसने हमे जिलाए रखा है उसे जंजीरों के रूप में हम नहीं मान सकते । पर बीते हुए युगों के वह पुराने रीति रिबाज जो आज के युग में बेकार हैंउन्हें हम अवश्य पुरानी जंजीरों के रूप में देख सकते हैं जिन्हें आज तोड़ना ही श्रेयस्कर है । रीति रिवाज हर युग में समयानुसार बदलते हैं । यह बात भारतीय समाज अच्छी तरह से समझता है । स्मृति ग्रंथ जिनमे यह रीति रिवाज और सामाजिक नियम होते हैं वे  हर युग में नई तरह से लिखे जाते हैं । मनुस्मृति आाज के युग में लागू नहीं हो सकती । आज की सोच-समझ और व्यवहार के तरीके पुराने युग से भिन्न  हैं और होने ही चाहिये । आज के युग में जातिवाद, छुआ-छूत, बाल-विवाह इत्यादि प्रथाएं छोड़नी ही होंगी । कोई भी प्रथा जो किसी भी मानव से उसकी जाति, बर्ण, लिंग या धर्म के नाम पर भेद-भाव करती है, उसे एकदम तजना होगा । पर इसके साथ-साथ  पुराने समाज के   रीति रिवाजों को आज के युग की सोच की कसौटी पर कस कर कटघरे में खड़ा करना भी ठीक नहीं हैं। जो पुराने काल में हुआ वह उस समय के लोगों ने अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक समझा और किया । उस पर अब वाद-विवाद का कोई औचित्य नहीं है। यह अवश्य है कि पुरानी प्रधाओं के चलते अगर आज समाज का कोई भी बर्ग पिछड़ा हो तो उसे सहारा दे कर उठाना हमारा परम कर्तव्य हैं ।भारत की उन्नति किसी भी सामाजिक बर्ग को पीछे छोड़कर नहीं हो सकती । आज का मूल मंत्र यही है ।

कुछ लोग रीतिरिबाजों को धर्म के साध जोड़ कर देखते हैं । मूल भारतीय दृष्टिकोण इस  सोच से मेल नहीं खाता । रीति रिवाज अपनी जगह हैं और युग-युग में बदलते हैं । सत्य-दर्शन यद्यपि कभी नहीं बदलता और उसका रीति रिवाजों से कोई खास लेना देना नहीं हैं । भारतीय दर्शन का एकमात्र उद्देश्य इस जगत के बास्तविक स्वरूप को जान कर संसार के क्लेशों  से सदा के लिये मुक्ति पाना रहा है। आधुनिक विज्ञान का लक्ष्य भी जगत की प्रगट बस्तुओं और जीब जंतुओं का अध्ययन कर अंतता पदार्थ एवं जीबन के मूलभूत सत्य तक पहुंचना ही है। इस तरह से आधुनिक विज्ञान और भारतीय दर्शन के लक्ष्य एक समान हैं । दोनो एक समान ही धर्मनिरपेक्ष हैं । इनमें अंतर है तो मात्र सत्य की खोज की विधि का | आधुनिक विज्ञान जगत की बस्तुओं का परत दर परत विश्लेषण  कर के सत्य तक पहुंचना चाहता है जब कि भारतीय परंपरा के दार्शनिक अपने आंतरिक विश्लेशण के द्वारा ही यह खोज करने का प्रयास करते   हैं । भारत और पश्चिमी सध्यताओं में मूल अंतर इसी खोज की विधि का हैं । भारत में अनंत काल से ही ध्यान और आत्मविश्लेषण  सत्य की खोज की विधि के रूप में मान्य हैं । भारतीय चिंतकों ने भौतिक एवं बाहरी जगत के विश्लेषण पर विशेष ध्यान नहीं दिया । भौतिक विज्ञान खास तौर से प्रायोगिक विज्ञान (Experimental sciences) हमारे देश में इसीलिये नहीं पनपे । इसके विपरीत यूनान एवं रोम मूलक पश्चिमी सभ्यताओं ने बाहरी जगत के विश्लेषण को बल दिया और आंतरिक विश्लेषण को नहीं । इसके फलस्वरूप उन्होंने विज्ञान में अभूतपूर्व सफलता पाई पर आध्यात्मिक बारीकियों एवं व्यक्तिगत सत्यानुभूति में वे अनाड़ी रहे ।

आजकल एक विचित्र माहौल बना हुआ है जिसको समझना आवश्यक हैं । पृथिवी के सभी देशों की नवयुवा  पीढ़ी पश्चिम की बैज्ञानिक उपलब्धियों से अत्यंत प्रभावित है और भारत का युवा वर्ग भी इसका अपवाद नहीं हैं । अमरीका आजकल सभी के लिये एक अनुकरणीय विश्वशक्ति बन गया हैं । वहां का एश्वर्य, खुलापन और सुख-सुविधाएं सभी को आकर्शित करते हैं । पर अधिकतर लोग यह नहीं समझते कि आंतरिक शांति का जो मूल-मंत्र भारतीय चिंतन से उपजा है उसका कोई विकल्प पश्चिम के पास नहीं है। इस  विकल्प के अभाव में योग क्रियाओं एवं ध्यान की भारतीय विधियों का अमरीका एवं अन्य पश्चिमी देशों में आजकल बहुत तेजी से प्रसार हो रहा है। चिंतनशील लोग आज समझने लगे हैंकि पश्चिमी बैज्ञानिक सफालताओं और उससे उपजी सुख लूटने की अदम्य  चाह अंततः पूरे विश्ब को विनाश के मार्ग पर ले जा रही है । पर्यावरण  में तेजी से फैलता प्रदूषण , भूमंडलीय तापमान व्रिद्धि, हिमपिंडों का तेजी से गलना, भीषण संहारक नाभकीय अस्त्रों का बढ़ता जमाव  और बढ़ती  सामाजिक असमानताएं मानव की शक्ति और सुख-लोतुपता की विज्ञान के साथ  साझेदारी के ही परिणाम हैं । इनको रोकना है तो विवेक, संयम, सहनशीलता  एवं प्राणी-मात्र पर दया  जैसे भरतीय  बिचार और आत्म शांति के उपायों को अपनाना ही होगा ।

लेख का आरंभ मैंने भारत की वैज्ञानिक महत्वाकांक्षाओं की ओर ध्यान खींच कर किया था | इस महत्वाकांक्षा में कोई बुराई नहीं है । आज के युग में बैज्ञानिक सिद्धहस्तता के बिना भी चारा नहीं है। पर यह ध्यान रखना होगा कि अपनी जड़ों को भूला कर और पश्चिमी अंधानुकरण कर के हम पश्चिम की नकल केरूप में ही उभरेंगे। और नकल असल से बेहतर नहीं हो सकती | हमारी मौलिकता हमारे आध्यात्मिक ज्ञान में ही है और उसे नकारना या भूलना एक  भयंकर  भूल होगी । यह सच है कि आध्यात्म  की तरह ही विज्ञान भी अंततः सत्य की ओर ले जाता है पर व्यक्तिगत सतह पर किसी व्यक्ति-विशेष को इसका कुछ आंतरिक लाभ नहीं मिलता । पश्चिमी विज्ञान का तोड़ भारतीय ज्ञान में ही है। पश्चिमी सुख प्राप्ति की मृग मारीचिका से थक  कर विश्व अंत में भारतीय  उपचार  की ओर ही बापस लौटेगा । देखना तो यह है कि तब तक भारतीय खेमा  किस हाल में होगा | हमरी निष्पत्ति पश्चिमी विज्ञान की नकल में होगी या अपने मौलिक ज्ञान को अक्षुण्य रखने में ।

 

~राजीव कृष्ण सक्सेना

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