पुनः स्मरण - दुष्यंत कुमार

पुनः स्मरण – दुष्यंत कुमार

Here is another great poem from Dushyant Kumar. Pathos in the poem is palpable. Rajiv Krishna Saxena

पुनः स्मरण

आह सी धूल उड़ रही है आज
चाह–सा काफ़िला खड़ा है कहीं
और सामान सारा बेतरतीब
दर्द–सा बिन–बँधे पड़ा है कहीं
कष्ट सा कुछ अटक गया होगा
मन–सा राहें भटक गया होगा
आज तारों तले बिचारे को
काटनी ही पड़ेगी सारी रात

बात पर याद आ गई है बात

स्वप्न थे तेरे प्यार के सब खेल
स्वप्न की कुछ नहीं बिसात कहीं
मैं सुबह जो गया बगीचे में
बदहवास हो के जो नसीम बही
पात पर एक बूँद थी ढलकी
आँख मेरी मगर नहीं छलकी
हाँ, बिदाई तमाम रात आई
याद रह रह के कँपकँपाया गात

बात पर याद आ गई है बात

~ दुष्यंत कुमार

लिंक्स:

 

Check Also

दुनिया जिसे कहते हैं‚ जादू का खिलौना है- निदा फ़ाज़ली

Here is a lovely poem by Nida Fazali that makes so true comments on the …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *