तत्व चिंतनः भाग 5 - नई दुनियां, पुरानी दुनियां

तत्व चिंतनः भाग 5 – नई दुनियां, पुरानी दुनियां – राजीव कृष्ण सक्सेना

Introduction:

Throughout much of the human history, man viewed himself as an integral part of the society and his own individuality was suppressed. Development of individualism seems to have started and gained momentum over last few hundred years. Evolution of America as a country strengthened greatly the process of evolution of a new world where individual liberty was valued far more and social norms of yesteryears were reinterpreted to allow this personal freedom. This article compares this new world of individualism with the old world of strict social constraints and how this change is transforming the world ~ Rajiv Krishna Saxena

तत्व चिंतनः भाग 5 – नई दुनियां, पुरानी दुनियां

बिल मेरे एक अमरीकी मित्र हैं। उन्होंनें कोई बंगाली फिल्म किसी अमरीकी टैलीविजन चैनल पर देखी।फिल्म उन्हें अच्छी लगी पर एक बात उन्हें समझ नहीं आई और वे यह समस्या ले कर मेरे पास आए। फिल्म के नायक और नाइका एक दूसरे से बेहद प्यार करते थे पर सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियों के कारणवश विवाह करने में असमर्थ थे। यह सामाजिक और पारिवारिक कारण बिल की समझ से बाहर थे। वे यही पूछते रहे कि अगर वे शादी करना चाहते थे तो कर क्यों नहीं ली और वेकार में इतना तड़पते क्यों रहे? यह प्रश्न उनके दृष्टिकोण से जायज़ था। वे उस अमरीकी समाज के अंग थे जहां अन्य देशों की तुलना मेें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विकास अपनी चरम सीमा पर है और व्यक्तिगत जीवन में सामाजिक हस्तक्षेप बिल्कुल अपेक्षित नहीं है। इस बात का कुछ खुलासा करते हैं।

एक पुरानी दुनिया है और एक नई। पुरानी दुनियां में समाज सर्वोपरी होता था और व्यक्ति समाज की एक ऐसी इकाई होता था जो कि सामाजिक और पारिवारिक मान्यताओं और अनुमतियों के घेरे से बाहर कदम रखने की सोच भी नहीं सकता था। समाज के विरुद्ध व्यक्तिगत निर्णय लेना बहुत कठिन था इसी लिये बंगाली फिल्म की नाइका और नायक विवाह न कर सके। पुरानी दुनियां का प्रतिनिधि आप भारतीय समाज को मान सकते हैं यद्यपि इस समाज का एक वर्ग तेजी से नई दुनियां से अपने आप को जोड़ने की होड़ में भी जुटा है। दुनियां के सभी प्राचीन देशों का समाज लगभग ऐसा ही था। पर कुछ सौ वर्ष पहले दुनियां में एक विलक्षण प्रयोग आरंभ हुआ और वह था रूढ़ीवादी विश्व से अलग थलग एक नए राष्ट्र का उदय। इस नये राष्ट्र अमरीका में पुरानी दुनियां के बंधनों को तोड़ कर एक ऐसे विचित्र समाज का गठन हुआ जहां प्राचीन सामाजिक रूढ़ियों को तोड़ फोड कर व्यक्तिगत स्वतं्रत्रता को बढ़ावा मिला। प्राचीन परंपराओं की जंजीरों में जकड़े मानव को अमरीका में एक अभूतपूर्व मुक्ति मिली। मानव की सृजनात्मक शक्ति जो कि परंपराओं और रूढ़ियों में कैद हो कर एक विशेष सीमा से ऊपर नहीं बढ़ पाती थी उसे अमरीका में अपने पूरे जोश और शक्ति के साथ उठने का मौका मिला। इसके परिणाम आज हम विश्वभर में देख रहे हैं। अमरीकी सृजनात्मकता विज्ञान में विशेष रूप से निखरी और इसके उपयोग से व्यक्तिगत भौतिक सुखों को पाने के साधनो का विकास इतनी तीव्र गति से हुआ कि विश्व हक्का बक्का रह गया। बिजली, मोटर गाड़ियां, वायुयान, विशाल राजमार्ग  वातानुकूलित घर‚ जगमग करती बहुमंजिली इमारतें‚ टैलीविजन‚ फिल्में इत्यादि इत्यादि।

इन परिर्वतनों के साथ साथ मानवीय संबंधों और सामाजिक मान्यताओं में भारी फेर बदल हुए। व्यक्तिगत स्वतंत्रता सर्वोपरि हुई और परिणाम स्वरूप मानव के चरम सुख के रूप में पुरानी दुनियां की यौन वर्जनाओं को तिलांजली दे कर एक अभूतपूर्व यौन स्वच्छंदता का भी विकास हुआ। पूरा विश्व इस परिवर्तन को देख रहा था। सुख लूटने की और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को पाने की संभावनाओं ने पुरानी दुनियां के नवयुवक और नवयुवतियां को विशेष रूप से लुभाया और पूरी दुनियां से यह वर्ग विशेष अमरीका आ कर यहां बसने के सपने देखने लगा। अमरीका ने प्रवासियों को खुली बाहों से अपनाया और प्रवासी नया खून अमरीकी सृजनात्मकता को तूल देता रहा। यह प्रक्रिया आज भी जारी है। ऐसा नहीं है कि नई दुनियां मात्र अमरीकी उपज है। अन्य देशों में विषेश रूप से योरोप में भी स्वतंत्र रूप से इस व्यक्तिवादी आंदोलन का आरंभ हुआ है पर अमरीका में यह विशेष रूप से संभव हो पाया क्योंकि यहां एक विशाल भूखंड पर नई दुनियां बसाने के उत्साही पुरानी दुनियां छोड़ कर आए और पुरानी दुनियां के अवरोध के नितांत अभाव में उन्होंने एक आश्चार्यजनक सफलता प्राप्त की। अन्य देशों जैसे कि भारत में नई दुनियां के उत्साही व्यक्तियों को पुरानी दुनियां के वातावरण में ही अपना कार्य करना पड़ा जो कि अत्यंत कठिन कार्य था। फिर ऐसा भी प्रतीत होता है कि भारत में नई दुनियां के उत्साही भी उम्र बढ़ने पर समाज में पूर्ण प्रतिष्ठित पुरानी दुनियां में वापस लौट जाते हैं जो कि अमरीका में संभव नहीं है। इसीलिये मुझे ऐसा लगता है कि भारत कभी भी पूर्णतः अमरीका में तबदील नहीं हो सकता।

आज विश्व भर में व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सर्वोपरी रखने वाला अमरीकी मौडल पूर्ण विश्व में नवयुवकों को विशेष रूप से आकर्षित कर रहा है और विश्व भर के नवयुवक इसका अनुकरण कर रहे हैं। नवयुवकों को इस अमरीकी धारा में बहता देख पुरानी दुनियां के समाजों को अपना अस्तित्व खतरे में लगता है और खतरे की घंटी यदा कदा बजती रहती है। इसकी विस्तृत प्रतिक्रियाएं भी देखने को मिलती रहती हैं। उदाहरण के तौर पर हम देखते हैं कि पुराने मुसलिम समाज में इस अमरीकी प्रभाव से उपजे खतरे पर विशेष रोष व्याप्त है और मेरे विचार में युवा वर्ग पर बढ़ता हुआ अमरीकी प्रभाव कट्टर मुसलिम समाजों में अमरीकी विरोध और पश्चिमी देशों के खिलाफ भावनाओं और आतंकवाद का एक मूल कारण है। खैर यह विषय भिन्न है और इस पर कभी और विचार करेंगे। अभी तो यह आवश्यक है कि हम निरपेक्ष भाव से इन नई और पुरानी दुनियाओं की समीक्षा करें और इस बदलाव के साथ साथ उपजे अन्य महत्वपूर्ण परिणामों को समझें। इसके लिये यह आवश्यक है कि अच्छा क्या है और बुरा क्या इन नैतिक निर्णयों से दूर रह कर मात्र समझने के लिये ही यह समीक्षा की जाए। नई एवं पुरानी दुनियाओं में कुछ प्रमुख अंतर नीचे दी हुई तालिका में दिये हुए हैं।

इनमें से कुछ तो जग जाहिर हैं पर कुछ का खुलासा आवश्यक है। राजनीति को ही लें। भारत एक जनतंत्र है। पर जब तक व्यक्तियों को स्वतंत्र रूप से सोचने का और व्यक्तिगत धारणाएं बनाने का मौका न मिले तब तक सच्चा जनतंत्र कायम नहीं हो सकता। भारत का जनतंत्र इसीलिये पूर्णतः कामयाब नहीं है क्योंकि यहां अधिकतर व्यक्तियों में अभी तक स्वतंत्र व्यक्तित्व का अभाव है। व्यक्तिगत बौद्धिक स्वतंत्रता के अभाव में यहां वोट बैंक‚ जातिवाद और परिवारवाद की राजनीति पनप रही है। इसी तरह पुराने के प्रति उपेक्षा का भाव नई दुनियां की धरोहर है जब कि पुरान्ी दुनियां में पुरानी परंपराओं का और वृद्धों का आदर होता है। नई दुनियां मे पुरानी परंपराओं और बड़ों की उपेक्षा अतिआवश्यक है क्योंकि इसके बिना नूतन का नव निर्माण संभव नहीं है। पुराने को तोड़ कर ही नया बनता है और पुराने का आदर करेंगे तो उसे तोड़ेंगे कैसे?

नई और पुरानी दुनियां में कला और कविता पर कुछ चर्चा यहां अपेक्षित है क्योंकि “गीता ­कविता” एक साहित्यिक मंच है। पुरानी दुनियां के कवि अपने आप को समाज का एक अभिन्न अंग समझते थे और समाज के लिये लिखते थे। इसके लिये अनिवार्य था कि उनकी अभिव्यक्ति ऐसी हो जो कि सब समझ सकें और उसका आनंद उठा सकें। कविता में छंद और गेयता इसीलिये आवश्यक थे। उदाहरण के तौर पर श्याम नारायण पांदेय की ”हल्दीघाटी” कविता या सुभद्रा कुमारी चौहान की ”झांसी की रानी” कविता पढ़िये। नई कविता की प्रसिद्ध पुस्तकमाला तार सप्तक के संपादक अज्ञेय लिखते हैं “एक समय था जब कि काव्य एक छोटे से समाज की थाती था। उस स्माज के सभी सदस्यों का जीवन एकरूप होता था अतः उनकी विचार संयोजनाओं के सूत्र भी बहुत कुछ मिलते जुलते थे कोई एक शब्द उनके मन .में प्रायः समान चित्र या विचार या भाव उत्पन्न करता था…… आज यह बात सच नहीं है। आज काव्य के पाठकों की जीवन परिपाटियां इतनी भिन्न हो सकती हैं कि उनकी विचार संयोजनाओं में समानता हो ही नहीं — ऐसे शब्द बहुत कम हों जिन से दोनों के मन में एक ही प्रकार के चित्र या भाव उदित हों।” यह बात नई दुनियां के लिये सच लगती है क्योंकि वहां व्यक्तिवाद चरमसीमा पर पहुंच चुका है। समाजिक बंधनों से मुक्ति प्राप्त स्वतंत्र विचार वाले नई दुनियां के व्यक्ति जब अपनी व्यक्तिगत अनुभूति कविता में ढालते हैं तो उसमें छंद या गेयता होना आवश्यक नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं कि समाज में सभी को वह कविता समझ में आए। इसको हम नई कविता के रूप में जानते हैं। भारतीय समाज के कुछ कवि जो नई दुनियां में प्रवेश कर चुके हैं उनकी अनुभूतियां हम नई कविता के रूप में पढ़ते हैं। अगर अज्ञेय जी की बात मानी जाए और यह समझा जाए कि नई कविता के शब्द अलग अलग व्यक्तियों में एक ही विचार नहीं उपजाएंगे तो यह निषकर्श निकलता है कि नई कविता साधारण जन समाज की पहुंच से बाहर है चाहे वह नई दुनियां हो या पुरानी। नई कविता में यही बहुत भारी समस्या है। व्यक्तिगत चेतना से एक कवि कुछ कहना चाहे पर उसकी बात दूसरे न समझ सकें तो क्या किया जाए। “गीता­कविता” के लिये कविताओं का चयन करते हुए यह समस्या मेरे सामने आती है। नई कविताओं को शामिल किया जाए या नहीं। कई नई कविताएं इतनी जटिल और क्लिष्ट होती हैं कि उनके चयन की हिम्मत नहीं पड़ती। पर व्यक्तिगत अनुभूतियों से प्रेरित होते हुए भी कई नई कविताएं इतनी जटिल नहीं होतीं कि सबकी समझ से बाहर हों और छंद के अभाव में भी वे बहुत सुंदर हो सकती हैं। ऐसी कविताएं मैं अक्सर सम्मिलित करता रहता हूं। उदाहरण के तौर पर देखें भारती जी की ”क्योंकि” और ”अंतहीन यात्री”, सुमित्रानंदन पंत की ”अंगुठिता” और भवानी प्रसाद मिश्र की ”टूटने का सुख”। खैर इस बात से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि नई कविता की उत्पत्ति नई दुनियां के विकास से जुड़ी हुई है और इनका विकास आज के युग में सहज एवं आवश्यह है। यही प्रक्रिया कला क्षेत्र में भी चल रही है। नई दुनियां के कलाकार पुरानी ललित कला छोड़ कर नई और जटिल कला कृतियां बना रहे हैं जो कि समसामायिक समाज में पूर्णतः समझी नहीं जातीं। साधारण पाठकों और साधारण दर्शकों से अभी दूर प्रतीत होते हुए भी अंततः नई कविता और नऐ कला क्षेत्र नई दुनियां के नए समाज में अपनी पूर्ण प्रतिष्ठा को प्राप्त होंगे ऐसा मेरा विश्वास है।

नई दुनियां के प्रति युवावर्ग का आकर्षण सहज है। पर मानव संरचना कुछ ऐसी है कि सदा सदा के लिये वह संघर्षों से नही जूझना चाहता। यौवन की समाप्ति पर, सृजनात्मक ऊर्जा के क्षीण पड़ने पर और दुनियां बदलने के उत्साह के धूमिल हो जाने पर पुनः एक ढर्रे पर चलने वाली जिंदगी ही आरामदायक लगती है। उस समय हम सभी को पुरानी दुनियां की सरलता और संवेदनशीलता याद आती है और भौतिकता से परिपूर्ण संघर्षात्मक इस नई दुनियां को छोड़ कर आरामदायक उसी अपेक्षाकृत सरल पुरानी दुनियां में लौट चलने का मन करता है। पिछले लेख “कौन बनेगा प्रवासी भारतीय” में प्रवासी भारतीयों की इसी दुविधा पर प्रकाश डाला गया था। पाठकगण अपनी स्थितियों का जायज़ा स्वयं लें। क्या आप युवा हैं और नई दुनियां के उत्साही हैं ? या कि आप उम्रदार हैं और पुरानी दुनियां से संतुष्ट हैं? क्या आप एक समय नई दुनियां के उत्साही थे और अब आपका मन पुनः पुरानी दुनियां में लौट चलने को करता है? क्या गलत है क्या ठीक है यह सिद्ध करना यहां उद्देश्य नहीं है और हो भी नहीं सकता। आप क्या करना चाहते हैं यह आपके दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। जो आपके लिये ठीक है, आपका सत्य भी वही है।

~ राजीव कृष्ण सक्सेना

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