कितनी बड़ी विवशता - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

कितनी बड़ी विवशता – सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Beautiful poem about two lovers lost in thoughts on a river bank, with so many restrictions that the social norms put on them. Trying, but unable to say anything. Rajiv Krishna Saxena

कितनी बड़ी विवशता

कितना चौड़ा पाट नदी का,
कितनी भारी शाम,
कितने खोए–खोए से हम,
कितना तट निष्काम

कितनी बहकी–बहकी सी
दूरागत–वंशी–टेर,
कितनी टूटी–टूटी सी
नभ पर विहगों की फेर

कितनी सहमी–सहमी–सी
जल पर तट–तरु–अभिलाष,
कितनी चुप–चुप गयी रोशनी,
छिप छिप आई रात

कितनी सिहर–सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात,
चार नयन मुस्काए, खोए,
भीगे, फिर पथराए,
कितनी बड़ी विवशता,
जीवन की, कितनी कह पाए!

~ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

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