बादलों की रात - रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’

बादलों की रात – रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’

A rainy night in a unfamiliar place sorely missing the beloved. Here is an excerpt of a poem by Ram Kumar Chaturvedi describing the feelings. Rajiv Krishna Saxena

बादलों की रात

फागुनी ठंडी हवा में काँपते तरु–पात

गंध की मदिरा पिये है बादलों की रात

शाम से ही आज बूँदों का जमा है रंग
नम हुए हैं खेत में पकती फ़सल के अंग
समय से पहले हुए सुनसान–से बाज़ार
मुँद गये है आज कुछ जल्दी घरों के द्वार

मैं अकेला पास कोई भी नहीं है है मीत
मौन बैठा सुन रहा हूँ दूर का संगीत
गा रहे हैं फाग शायद दूर कुछ मजदूर
आज खुश वे भी कि जिनकी देह थक कर चूर

सब सुखी हैं सिर्फ मेरी ही भरी है आँख
वज्र से टकरा गई है मन–विहग की पाँख
मैं जिसे अपना कहूँ कोई नहीं है आज
ज़िंदगी के दीप के सर पर तिमिर का ताज

व्यर्थ अर्पित कर रहा हूँ आँसुओं के हार
मेघ मेरा दूत बनने को नहीं तैयार
घुट रहा है प्राण में मेरा मिलन संदेश
मौत धर कर आ गई काली घटा का वेष

देह जीती है अकेली प्राण से हो दूर
कौन है इन्सान से बढ़ कर यहाँ मज़बूर
प्यार की दुनियाँ हुई कुछ इस तरह बर्बाद
बन गई है जिन्दगी बीते दिनों की याद

यों बिताता हूँ किसी की याद में हर रात
ज्यों अँधेरे में करे काई दिये की बात
बूँद स्याही की लिखेगी क्या हृदय हा हाल
लेखनी में बँध नहीं सकता कभी भूचाला

∼ रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’

लिंक्स:

 

Check Also

जब तुम्हीं अनजान बन कर रह गए – शांति सिंहल

Women have a world view that is very different from that of men. Women may …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *