मातृभाषा – अनामिका

मातृभाषा – अनामिका

Matrbhasha (mother tongue) is closest to our hearts. Here is such a lovely poem that only Anamika Ji can write. She is so close to things that are closest to our hearts and are difficult to talk about and express. Hats off to her! Rajiv Krishna Saxena

मातृभाषा

छुट्टी के दिन बैठ जाता हूँ कभी–कभी
मिनट–दस मिनट को में माँ के सिरहाने!
चाहता हूँ कि कहूँ कुछ–कुछ
मगर फिर बात ही नहीं सूझती।

वो ही उत्साहित–सी
करने लगती है तब बचपन की बातें
बैक गियर में ही चलाती है माँ अपनी गप–गाड़ी
‘जब तू छोटा था’ से ही शुरू होती है
उसकी बेताल पचीसी!

पुश्तैनी गहनों और पीतल के गागर–परात की तरह
माँ सँजोए बैठी है अब तक मेरे सब यक्ष प्रश्न
कुछ चुटकुलेदार वाक़ये
और ठस्सेदार शब्द मातृभाषा के!

माताएँ दूध पिला कर सिर्फ आपको ही नहीं पोसतीं
पोसतीं हैं वे अनेरुआ कई शब्द ऐसे
जो कभी शब्दकोशों के सिंहासन नहीं चढ़ते
पर जान होते हैं भाषा की
भाषाएँ मातृभाषा होती हैं माँओं के दम से
और माँ के दूध की गंध आती है हर मातृभाषा से!
माँओं के बचाए ही बचती है भाषा!
क्या होता मेरी हिंदी का माँ के बिना?
सोचता हूँ लिखूँ माँ को एक चिट्ठी
पृथ्वी जितनी बड़ी
लेकिन कम्पयूटर में फॉन्ट नहीं हिन्दी के
आठवीं कक्षा में ही छूट गई हिंदी
और कलम को मुँहलगी हो गई एक ऐसी भाषा
जो दूर–दूर तक किसी की नहीं थी
‘माई गॉड’ ‘शट–अप’ और ‘येस–नो’ से
रँगी हुई यह भाषा
आवेदन अच्छे लिख सकती थी

पर माँ को चिट्ठी कैसे लिखती?
माँ वाली चिट्ठी की भाषा
सपनों की भाषा हो सकती थी पर फिर समृतियों की!
‘हाँ–ना’ के बीच के उर्वर–प्रदेश में
ओस का दुशाला ओढे खड़ी भाषा
हरी भरी और मन भरी भाषा
हिंदी ही हो सकती थी!
धीरे धीरे छूट गई मेरी माँ भाषा
क्या माँ भी छूट जाएगी!
डर लगता है सोचकर ही।
माँ को लगातार तंग किया है मैंने

आरै कभी खुल कर माफी भी नहीं मांगी
एक विदग्ध मौन से ही काम लिया है हरदम!
‘परिपक्वता’ शायद इसे ही कहती है सभ्यता!
इतना समझता हूँ
पर यह नहीं समझ पाया
क्यूं हर फल
परिपक्व होते ही
टप टपक जाता है
अपनी ही डाली से!

अनामिका

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