जहाँ मैं हूँ - बुद्धिसेन शर्मा

जहाँ मैं हूँ – बुद्धिसेन शर्मा

Society is changing and restlessness is increasing. We have to somehow cope with the change. Rajiv Krishna Saxena

जहाँ मैं हूँ

अजब दहशत में है डूबा हुआ मंजर, जहाँ मैं हूँ
धमाके गूंजने लगते हैं, रह-रहकर, जहाँ मैं हूँ

कोई चीखे तो जैसे और बढ़ जाता है सन्नाटा
सभी के कान हैं हर आहट पर, जहाँ मैं हूँ

खुली हैं खिडकियां फिर भी घुटन महसूस होती है
गुजरती है मकानों से हवा बचकर, जहाँ मैं हूँ

सियासत जब कभी अंगडाइयाँ लेती है संसद में
क़यामत नाचने लगती है सड़कों पर, जहाँ मैं हूँ

समूचा शहर मेरा जलजलों कि ज़द पे रखा है
जगह से हट चुके हैं नींव के पत्थर, जहाँ मैं हूँ

कभी मरघट की खामोशी कभी मयशर का हँगामा
बदल लेता है मौसम नित नया तेवर, जहाँ मैं हूँ

घुलेगी पर हरारत बर्फ में पैदा नहीं होगी
वहाँ हर आदमी है बर्फ से बदतर, जहाँ मैं हूँ

पराये दर्द से निस्बत किसी को कुछ नहीं लेकिन
जिसे देखो वही बनता है पैगम्बर, जहाँ मैं हूँ

सदन में इस तरफ हैं लोग गूँगे औ उस तरफ बहरे
नहीं मिलता किसी को प्रश्न का उत्तर, जहाँ मैं हूँ

मजा लेते हैं सब एक-दूसरे के जख्म गिन-गिनकर
मगर हर शख्स है अपने लहू में तर, जहाँ मैं हूँ

नीचे गिरना है तो एकबारगी गिर क्यूँ नहीं जाते
लटकती है सदा तलवार क्यूँ सर पर, जहाँ मैं हूँ

~ बुद्धिसेन शर्मा

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