कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं – बालस्वरूप राही

कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं – बालस्वरूप राही

Mere thoughts of love makes a difficult path feel so nice. Here is a lovely poem by Balswarup Rahi – Rajiv Krishna Saxena

कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं 

कंटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पांव को मेरे‚
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं!

हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ कुछ नमी सी है
डगर की ऊष्णता में भी न जाने क्यों कमी सी है‚
गगन पर बदलियां लहरा रहीं हैं श्याम आंचल सी
कहीं तुम नयन में सावन बिछाए तो नहीं बैठीं!

अमावस की दुल्हन सोई हुई है अवनि से लग कर
न जाने तारिकाएं बाट किसकी जोहतीं जग कर‚
गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है‚
कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं!

हुई कुछ बात ऐसी फूल भी फीके पड़े जाते
सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते‚
बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चंदा
कहीं तुम आंख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं!

कंटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पांव को मेरे
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं!

∼ बालस्वरूप राही

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