फलसफा प्रेम का

तत्व चिंतन भाग 9 – फलसफा प्रेम का – राजीव कृष्ण सक्सेना

Love is a great enigma. Young people are washed away with the strength of feelings and emotions that seem to take over ones personality. It is like an acute fever that rises and falls in due course of time. From biological point of view, love and sex are amongst the most powerful natural instincts and as is the case with all instincts, they cannot be understood with a rational mind. Yet instincts so powerful must have a biological justification for their preservation during the course of biological evolution. Read on to get an insight into the phenomenon of love. Readers comments are welcome at rajivksaxena@gmail.com – Rajiv Krishna Saxena

तत्व चिंतन भाग 9 – फलसफा प्रेम का

गालिब ने कहा “इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के”। जब तक आदमी प्रेम में नहीं पड़ता और उसकी समझबूझ सही सलामत रहती है तब तक वह कहता है :

ये जो मोहब्बत है, ये उनका है काम
महबूब का बस, जो लेते हुए नाम
लुट जाएं, मिट जाएं, हो जाएं बदनाम
छोड़ो भी, रहने दो, जाने दो यार
हम ना करेंगे प्यार

वही व्यक्ति जब तिरछी चितवन से घायल हो जाता है, प्रेम की मधुर फुहार में सराबोर हो जाता हैं और समझबूझ को ताक पर रख देता है, तब उसका हालचाल कुछ अलग ही दीख पड़ता है। फिल्म सी अई डी में देवानंद कुछ इसी हालत में हैं जब हीरोइन पूछती है

गाते हो गीत क्यों, बिखरे हैं बाल भी
खोए हो किासलिये, बदली है चाल भी
किस बेवफा का नजारा हो गया
आंखो ही अंखो में, इशारा हो गया
बैठे बैठे जीने का सहारा हो गया

प्रेम और प्रेम में दिल की हालत के बारे में कवियों ने जितना लिखा है उतना संभवतः किसी और संदर्भ में नहीं लिखा। हर युग में लगभग हरेक व्यक्ति को अधिकतर युवावस्था में प्रेम रोग हो जाया करता है। इसके लक्षण साफ होते हैं। कोई व्यक्ति अचानक संसार में सबसे प्यारा लगने लगता है। दिल बेचैन रहता है और चाहता है कि उसी व्यक्ति के ख्यालों में रमा रहे। काम काज में मन नहीं लगता। दुनियां दुशमन लगती है। अच्छा भला आदमी कुछ समय के लिये नकारा हो जाता है। कहते हैं कि सावन के अंधे को हरा ही हरा दिखाई देता है। इसी तरह प्रेमियों को इक दूजे में सब कुछ अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ता है कोई भी ऐब दिखाई नहीं देता। पर सच तो यह है कि हम प्रेम इसलिये नहीं करते कि व्यक्ति विषेश में इतने गुण हैं और प्रेमी या प्रेमिका इतने अच्छे हैं। बल्कि अच्छा इसलिये है और गुण इसी लिये दिखाई पड़ते हैं क्यों कि प्रेम हो गया है। जिससे प्रेम किया गया हो वह असल में नहीं बदलता केवल प्रेमी की नजर बदल जाती है। वह भी कुछ समय के लिये।

अगर किसी कारणवश प्रेमी प्रेमिका का मिलन न हो पाए और “बेदर्द जमाना” दोनो के बीच की दीवार बन जाए तो मानसिक तनाव जिसे इश्क का बुखार भी कहते हैं बढ़ता ही जाता है और पागलपन की हद तक पहुंच जाता है। प्रेमी प्रेमिका से मिलने के लिये कुछ भी करने को उतारू हो जाता है। आप सभी नें लैला मजनूं , शीरी फरहाद और रोमियो जूलियट के किस्से सुने होंगे। कहते हैं कि प्रेम में मिलन न हो तो अफसाने बन जाते हैं यानि कि पागलपन इतना बढ़ता है कि दुनियां वाले इसके किस्से बखानने लगते हैं।

पे्रम रोग का एक ही उपचार है। वह है मिलन। प्रेम के तनाव को आप गुब्बारे में हवा भरने के समान मान सकते हैं। अगर हवा भरती जाए तो तनाव बढ़ता जाता है और गुब्बारा फूट भी सकता है। गुब्बारे में अगर एक छोटा सा छेद कर दिया जाए तो हवा निकल जाती है। प्रेम का तनाव भी तब तक बढ़ता है जब तक मिलन ना हो। मिलन को आप प्रेम के गुब्बारे में एक ऐसे ही छेद के समान मान सकते हैं। मिलन के बाद धीरे धीरे तनाव धटता है और शनै शनै प्रेमी पहले जैसी साधारण स्थिति में वापस पहुंच जाता है। प्रेमी प्रेमिका की शादी के साल दो साल के बाद उन्हें कई बार स्वयं ही समझ नहीं आता कि उन्होंने एक दूसरे में क्या देखा था जिससे वे एक दूसरे के प्रति इस कदर अकर्षित हुए थे। जो भी हो आप मे से जिन्होंने भी कभी प्रेम किया है वे इस बात से तो फौरन सहमत हो ही जायेंगे कि प्रेम की यादें बड़ी सुहावनी होती हैं। ऐसा लगता है कि प्रेम एक ऐसा जादू था जिसके सामने दुनिया की कोई भी दूसरी पेशकश फीकी है। ऐसा भी लग सकता है कि असल में जिन्दा तो तभी थे जब प्रेम में थे अब तो बस बाकी की जिन्दगी बिता रहे हैं।

प्रेम का बुखार आखिर चढता ही क्यों है। अइये इसका जाएज़ा लें। लाखो सालों से पृथ्वी पर प्राणियों की अनगिनित जातियों का विकास होता आ रहा है। किसी भी जाति विशेष के धरती पर बने रहने में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है उसकी प्रजनन शक्ति। प्रजनन से जाति का विस्तार होता है। पर्याप्त मात्रा में जाति का विस्तार न हो तो जाति शीघ्र ही लुप्त हो जाती है। जाति विस्तार के लिये कुछ मूलभूत आवश्यकताएं है। पहली यह कि नर मादा एक दूसरे के प्रति आकर्षित हों।दूसरी यह कि उनमें प्रजनन क्रिया हो जिसकी निष्पत्ति संतान प्राप्ति में हो।और फिर यह कि उत्पन्न बच्चों का संरक्षण और देख रेख भली भांति हो जिससे वे बड़े हो कर युवावस्था को प्राप्त हों और यह पूरी प्रक्रिया पुनः दोहराई जा सके।

तटस्थ दृष्टि से देखा जाए तो यह पूरी प्रक्रिया एक प्राणी विशेष के लिये अच्छा खासा मेहनत मशक्कत का और कष्टकारी कार्य है, जिसके बदले में उसे कुछ खास प्राप्त नहीं होता। मादा के लिये गर्भावस्था एक कठिन और तकलीफदेह समय होता है। बच्चे के जन्म में मां को बेहद कष्ट और दर्द झेलने पड़ते हैं। बच्चे को बड़ा करने में, उसे सब सुख सुविधा यथाशक्ति उपलब्ध कराने में मां बाप को एक कठिन और त्यागपूर्ण जीवन जीना पड़ता है। फिर बच्चे बड़े हो कर अक्सर माता पिता का दिल तोड़ने का कार्य बखूबी करते हैं। आखिरकार मनुष्य इस पचड़े में पड़े तो क्यों? प्रकृति को मालूम है कि इन्सानों या अन्य प्राणियों को उनकी मर्जी पर छोड़ और उनकी सोचने समझने की और लाभ हानि पहचानने की शक्ति यथावत रहे तो कोई भी जानबूझ कर इस मुसीबत में नहीं पड़ेगा। ऐसा होने पर प्रजनन क्रिया होगी ही नहीं और जीव प्रजातियां लुप्त हो जाएंगी। पर प्रकृति यह नहीं चाहती। प्रजातियां फूलें फलें प्रकृति का यही मूल मंत्र है। इसके लिये जीवों को प्रजनन क्रिया अपनाने के लिये कुछ पारितोषिक या रिश्वत देना अत्यंत आवश्यक हो जाता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिये प्रकृति छल का सहारा भी लेती है। प्रेम रोग को इस छल के रूप में समझा जा सकता है। इस छल के अंतरगत कुछ समय के लिए मानव की सोच घास चरने के लिये छोड़ दी जाती है। आखों को सामने गुलाबी पर्दे पड़ जाते हैं। प्रेम के सिवाए कुछ नहीं सूझता। यह छल प्रकृति का ऐसा कमाल है जिसे देख हमें दांतों तले उंगली दबानी पड़ती है।

सभी प्राणियों में प्रजनन की क्षमता प्राप्त नर और मादाओं में एक दूसरे के प्रति असीम आकर्षण एक सहज वृत्ति के रूप में विकसित हुआ है। यही सहज आकर्षण नर और मादाओं को एक दूजे के करीब लाने का काम करता है। उसके पश्चात यौन क्रिया एक दूसरी सहज वृत्ति है जिसमें प्रकृति नें पारितोषिक के रूप में असीम आनंद भर दिया है। प्रेम रोग और यौन क्रिया जीवन के अदभुत अनुभव हैं जो कि प्रकृति के दृष्टिकोण से जीवन का सार हैं। प्रकृति मात्र प्रजनन चाहती है। मानव की बौद्धिक उपलब्धियों से प्रकृति का कुछ लेना देना नहीं है।

मजे की बात यह है कि जानवरों में आकर्षण और यौन क्रिया अनुकूल मौसम में ही होती हैं। यह मौसम नवजात बच्चों के आसानी से बचने और बड़े हो पाने में सहायक होते हैं। इसीलिये एक कमप्यूटर प्रोग्राम की तरह जीव जंतुओं में नर मादा की आपसी तलाश और यौन क्रिया उसी अनुकूल मौसम और समय के अनुसार ही होती है। मनुष्य के लिये न केवल प्रेम करने का कोई विशेष मौसम नहीं होता। यह प्रक्रिया वर्ष भर चल सकती है और चलती भी है। प्रेम और यौन क्रिया जानवरों की तरह हममें भी सहज वृत्ति ही है मगर मानव एक मात्र ऐसा प्राणी है जो कि विकसित मस्तिष्क और चिंतन शक्ति के होते हुए अपनी मनस्थिति को समझने का प्रयत्न करता रहता है। अंदर से उठने वाली शक्तिशाली अथवा सहज वृत्तियों को चिंतन द्वारा समझने में हमे कठिनाई होती है। जो भी सहज वृत्तियां अंदर से उठती हैं उन्हें चिंतन से नहीं समझा जा सकता। वे हृदय से उठती जान पड़ती हैं मस्तिष्क से नहीं। प्रेम रोग इसी लिये मानव के लिये एक अदभुत और अत्यंत खट्टी मीठी गुत्थी बना रहता है जो कि सुलझने का नाम ही नहीं लेती। गालिब कहते हैं कि इश्क पर जोर नहीं है ये वो अतिश गालिब कि लगाए न लगे और बुझाए न बने। गुरूदास मान कहते हैं “दिल का मामला है”। प्रेम वह जादू है जो सर चढ़ कर बोलता है। प्रेमिका को देख कर दिल बल्लियों उछलने लगता है। दलीप कुमार को फिल्म गंगा जमना में ठुमकते हुए आप सभी ने देखा होगा।

आंख लड़ जइ हैं सजनियां से, तो नाचन लगि है
प्रेम की मीठी गजल, मनवा भी गावन लगि है
झांझ बजि है तो, कमरिया मा लचक होइबे करी
नैन लड़ जइ है तो, मनवा मा कसक होइबे करी
प्रेम का फुटि है पटाखा तो धमक होइबे करी!

~ राजीव कृष्ण सक्सेना

Further reading links: 

तत्व चिंतन: भाग 1 – तत्व चिंतन की आवश्यकता
तत्व चिंतनः भाग 2 – भारतीय धर्मों की मूल धारणाएं
तत्व चिंतनः भाग 3 ­- कौन सा रस्ता लें?
तत्व चिंतनः भाग 4 – अच्छा क्या है बुरा क्या है?
तत्व चिंतनः भाग 5 – नई दुनियां, पुरानी दुनियां
तत्वचिंतनः भाग 6 – जीवन का ध्येय
तत्वचिंतनः भाग 7– भाग्यशाली हैं आस्थावान
तत्वचिंतनः भाग 8 ­बुद्धि : वरदान या अभिशाप
तत्वचिंतनः भाग 9 – फलसफा प्रेम का 

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