मास्टर की छोरी – प्रतिभा सक्सेना

मास्टर की छोरी – प्रतिभा सक्सेना

In the old world (that still persists to a large extent in India), after marriage the bride was expected to become a part of the groom’s family. A girl’s leaving the parent’s to go to a new home remains a heart wrenching scene even today. Here is a moving poem by Prtibha Saxena about a teacher’s daughter, so accustomed to read books in her father’s home, being married into a family that does not care about literature. She must compromise nonetheless as there is no other way out… Rajiv Krishna Saxena

मास्टर की छोरी

विद्या का दान चले, जहाँ खुले हाथ
कन्या तो और भी सरस्वती की जात
और सिर पर पिता मास्टर का हाथ।

कंठ में वाणी भर, पहचान लिये अक्षर
शब्दों की रचना, अर्थ जानने का क्रम
समझ गई शब्दों के रूप और भाव
और फिर शब्दों से आगे पढ़े मन
जाने कहाँ कहाँ के छोर, गहरी गहरी डूब तक
बन गया व्यसन,
मास्टर की छोरी।

पराये लगे न कभी, लड़के हर बार नये
घर में आ कर रह जाते, माता का मन उदार
भूख-प्यास जान रही, अक्सर ही स्वेटर भी
पढ़-लिख, तैयार चरण छूते, बिदा होते
किसी को भी नहीं खला, कभी कमी नहीं पड़ी
यों ही बड़ी होती रही
मास्टर की छोरी।

एक दिन किसी ने कहा, उनके पास है ही क्या सिवा
फ़ालतू की बातों के और इन किताबों के
क्या अचार डालेगी
रीत-भाँत- दुनिया से कोरी
मास्टर की छोरी।

बुरा लगा, हुई दुखन, जान गई अपना सच
साध लिया बिछला मन
दुनिया को समझ रही
अपने से परख रही
मास्टर की छोरी।

ब्याह गई
नये लोग नये ढंग
कमरों वाला मकान, लोक- व्यवहार
सभी साज और सँवार
लेकिन किताबों बिन
सूनी सी लगतीं रही, भरी अल्मारियाँ
चाह उठे बार- बार
कभी एकांत खोज, मन चाही किताब खोल
पास धर लाई-चना देर तक पढ़ती रहे शांत
चुपचाप कहीं रुके अनायास
कुछ सोचती या गुनती रहे
मास्टर की छोरी।

पढ़ती सभी के मन, करने लगी जतन
साथ ले अकेलापन, कौन जाने वह चुभन
पाट नहीं पा रही
भीतर और बाहर के बीच बसी दूरी
मास्टर की छोरी।

∼ प्रतिभा सक्सेना

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