एक पूरा दिन – राजीव कृष्ण सक्सेना

एक पूरा दिन – राजीव कृष्ण सक्सेना

Most days are so routine. Nothing really happens. But then one evening, by some magic, the heart melts and tears flow. This interlude makes that day prefect. – Rajiv Krishna Saxena

एक पूरा दिन

आज नहीं धन आशातीत कहीं से पाया‚
ना हीं बिछड़े साजन ने आ गले लगाया।

शत्रु विजय कर नहीं प्रतिष्ठा का अधिकारी‚
कुछ भी तो उपलब्धि नहीं हो पाई भारी।

साधारण सा दिन‚ विशेष कुछ बात नहीं थी‚
कोई जादू नहीं‚ नयन की घात नहीं थी।

झलक नहीं पाते जो स्मृति के आभासों में‚
जिक्र नहीं होता है जिनका इतिहासों में।

बेमतलब ही पथ पर जो जड़ते रहते हैं‚
भार उठा जिनका हम बस चलते रहते हैं।

सांझ तलक ऐसा ही दिन कुछ बीत रहा था‚
कोल्हू के बैलों सा मन बस खींच रहा था।

सांझ ढली फिर संध्या का जब दीप जलाया‚
जाने क्यों फिर अनायास मन भर–भर आया।

टीस हृदय में उठी‚ चली अंदर पुरवाई‚
मन के मेघों ने आंखों से झड़ी लगाई।

शून्य भावनाओं का सूखा निर्जन आंगन‚
जलमय उस जलधारा से संपूर्ण हो गया।

सांझ गए तक निपट अधूरा जो लगता था‚
साधारण वह दिवस अचानक पूर्ण हो गया।

∼ राजीव कृष्ण सक्सेना

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