Fresh bathed
झकोर–झकोर धोती रही, संवराई संध्या, पश्चिमी घात के लहराते जल में, अपने गौरिक वसन

सद्य स्नाता – प्रतिभा सक्सेना

In this poem, Pratibha Saxena gives a magical commentary of dusk turning to night and then into early morning dawn. Imagery is delightful. Enjoy.

सद्य स्नाता

झकोर–झकोर धोती रही,
संवराई संध्या,
पश्चिमी घात के लहराते जल में,
अपने गौरिक वसन,
फैला दिये क्षितिज की अरगनी पर
और उत्तर गई गहरे
ताल के जल में

डूब–डूब, मल–मल नहायेगी रात भर
बड़े भोर निकलेगी जल से,
उजले–निखरे सिन्ग्ध तन से झरते
जल–सीकर घांसो पर बिखेरती,
ताने लगती पंछियों की छेड़ से लजाती,
दोनो बाहें तन पर लपेट
सद्य – स्नात सौंदर्य समेट,
पूरब की अरगनी से उतार उजले वस्त्र
हो जाएगी झट
क्षितिज की ओट!

~ प्रतिभा सक्सेना

लिंक्स:

Check Also

Sunset at the end of the day

साथी अंत दिवस का आया – हरिवंश राय बच्चन

One of the very many small poems on everyday life by Shri Harivansh Rai Bachchan.  …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *