ज़िन्दगी की शाम – राजीव कृष्ण सक्सेना

ज़िन्दगी की शाम – राजीव कृष्ण सक्सेना

Once the main duties associated with life are over, a kind of boredom sets in. There may be no specific issues but just a routine and wait… Rajiv Krishna Saxena

ज़िन्दगी की शाम

कह नहीं सकता
समस्याएँ बढ़ी हैं,
और या कुछ
घटा है सम्मान।

बढ़ रही हैं नित निरंतर,
सभी सुविधाएं,
कमी कुछ भी नहीं है,
प्रचुर है धन धान।

और दिनचर्या वही है,
संतुलित पर हो रहा है
रात्रि का भोजन,
प्रात का जलपान।

घटा है उल्लास,
मन का हास,
कुछ बाकी नहीं
आधे अधूरे काम।

और वय कुछ शेष,
बैरागी हृदय चुपचाप तकता,
अनमना, कुछ क्षीण होती
जिंदगी की शाम।

∼ राजीव कृष्ण सक्सेना

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