मन पाखी टेरा रे – वीरबाला भावसार

मन पाखी टेरा रे – वीरबाला

Veerbala Ji’s poems have that very familiar scent of earth. These precious poems appear to belong to an era where nature and feelings reigned supreme, without any encroachment of the modern world of artificiality. It is amazing how we feel so much at ease and close to ourselves in this milieu of flowers, birds, earth, sky and deep feelings. This  poem was recently used in a play of the well known play writer Girish Karnad, that was staged in New Jersey. They composed the music for the poem. The song version was sent to me. It is beautiful. To listen, please click here.    – Rajiv Krishna Saxena

मन पाखी टेरा रे

रुक रुक चले बयार, कि झुक झुक जाए बादल छाँह
कोई मन सावन घेरा रे, कोई मन सावन घेरा रे
ये बगुलों की पांत उडी मन के गोले आकाश
कोई मन पाखी टेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

कौंध कौंध कर चली बिजुरिया, बदल को समझने
बीच डगर मत छेड़ लगी है, पूर्व हाय लजाने
सहमे सकुचे पांव, कि नयनों पर पलकों की छाँव
किसने मुद कर हेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

झूम झूम झुक जाए चंपा, फूल फूल उतराये
गदराई केलों की कलियाँ, सावन शोर मचाये
रिम झिम बरसे प्यार की पल पल उमगे मेघ मल्हार
मधुर रास सारा तेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

पात पात लहराए बगिया, उमग उमग बौराये
सौंधी सौंधी गंध धरा की, कन कन महकी जाये
बहकी बहकी सांस, कि अँखियों भर भर दिये उजास
मन कहाँ बसेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

रूठ रूठ खुल जाये पयलिया, छुम छुम चली मनाने
सूने सूने पांव महावर, दुल्हिन चली रचाने
किसके मन की बात, की सकुचे किसका कोमल गात
कहाँ पर हुआ सवेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे
कोई मन पाखी टेरा रे

∼ डॉ. वीरबाला

लिंक्स:

 

Check Also

Kabir ke dohe

कबीर के दोहे – कबीर

Kabir (1440AD to 1518AD) was one of the early saints of bhakti kaal who lived …

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *