In today’s milieu, this poem defines the political situation that seems to prevail in the country. Rajiv Krishna Saxena
लोकतंत्र
योजना उजाले की फेल हो गई।
मौसम की साज़िश का हो गया शिकार,
लगता है सूरज को जेल हो गई।
संसद से आंगन तक, रोज़ बजट घाटे का
आसमान छूता है भाव, दाल–आटे का
मंहगी तन ढकने की, हो गई लंगोटी भी
ख़तरे में दिखती है, चटनी और रोटी भी।
सपने, उम्मीदें, सब खुशियां, त्योहार,
लील गई महंगाई ‘व्हेल’ हो गई।
देश, धर्म, नैतिकता, नारों के हिस्से हैं
लोकतंत्र नाटक है, कुर्सी के किस्से हैं
सब अवसरवादी हैं, सत्ता के भूखे हैं
खादी के कपड़ों के पीछे बंदूकें हैं।
जिसकी बंदूकें, हैं उसकी सरकार,
राजनी्ति गुंडों का खेल हो गई।
इनकी क्या ग़लती है, सत्ता तो सत्ता है
सारी सुविधाएं हैं, ऊपर से भत्ता है
मुश्किल से मिलती है, कुर्सी कुछ वर्षों की
कैसे फिर याद रहें बातें आदर्शों की।
सत्ता की मदिरा का छा गया खुमार,
चढ़ गई शराब ‘कॉकटेल’ हो गई।
लगता है सूरज को जेल हो गई।
~ राजेंद्र तिवारी
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