Here is a beautiful poem on women of the yesteryears that we don’t find these days. Prof. Rajiv K. Saxena
वे स्त्रियां
देखते ही देखते लुप्त हो गईं वे स्त्रियां
जो घर की देहरी के बाहर
या कि छत पर
या कि घर के आँगन में
अपने लिए
बच्चों के लिए
या पुरुषों के लिए
सर्दियों में स्वेटर बुना करती थीं!
वे बड़े ख़ुशनसीब दिन थे
जब भेड़ें
इंतज़ार करती थीं
कि अब हमारे बाल उतारे जाएंगे –
6 नंबर 7 नंबर 8 नंबर 9 नंबर 10 नंबर की सलाइयाँ
बेचैन रहा करती थीं
कि कब हम किसी स्त्री के हाथों में जाएं
और हाड़ कंपा देने वाली ठंड से बचाने के लिए
प्यार से आपस में गुत्थम गुत्था हो जाएं!
गोल घेरे में
बैठी रहती थी स्त्रियां
एक मंगोड़ी चूँटती थी
एक दाल साफ़ करती थी
एक पापड़ सुखाती थी
एक स्वेटर बुनती थी
एक बस बातें करती थी और कोई काम नहीं करती थी
प्लास्टिक के इस युग में
ऊन जैसे
रेशमी दिनों का वह युग
क्या हमेशा के लिए लुप्त हो गया?
क्या अब कभी नाप नहीं लिया जाएगा
हमारे कंधों का
हमारी गर्दन का
हमारी बाजुओं का
हमारी कलाइयों का
हमारी छातियों का
कहीं हम लोग
सिकुड़ कर इतने छोटे तो नहीं हो गए हैं
कि बाज़ार की जेब में
पर्स की तरह रखे जाने लगे हैं?
ऊन से
स्वेटर बुनी जाती थी
फिर बची हुई ऊन से
हाथ के दस्ताने
फिर भी बची हुई ऊन से
पोंछे और पायदान
कौन ले गया हमारी ऊन
कौन ले गया हमारी स्त्रियों का नर्म स्पर्श
कौन ले गया हमारी सलाइयों का जादू
क्या buy 1 get 1 के ऑफर तक
सिमट गए हैं
सर्दियों के यह तीन महीने
जिनके लिए हम नौ महीने इंतज़ार करते थे?
एक हूक सी उठती है
क्रोशिये पर
सलाइयों से बुन रही किसी स्त्री को देखकर
कि अपने सारे कपड़े उतारकर नंगा हो जाऊं
और कहूँ :
ओ माँ! मेरा नाप लो और मेरे नाप के कपड़े सी दो!
इस क़दर नंगा हूँ
कि हर कपड़ा
छोटा पड़ जाता है माँ
ठंडी हवाएँ
मुझे चीरकर पार हो जाती हैं
सुइयां-सी चुभती हैं
सारे शरीर में
आत्मा अकड़ जाती है
एक ऐसे विरोध में
जो मुझे न आगे लेकर जाता है न पीछे!
मेरी माँ
जो नौकरी पर जाती है
उसके पास समय नहीं
मेरी बहन
जो आई आई टी में पढ़ती है
उसे यह सब बोरिंग लगता है
मेरी चाची
फर्स्ट ग्रेड की नौकरी की तैयारी करती है
उसे समझ ही नहीं आता
6 नंबर 7 नंबर सलाई का खेल
मेरी दादी
अब आँखों से मजबूर है
उसने मेरे दादा के मरने के बाद
ऊन के गोलों की ओर देखा तक नहीं..
बाज़ार का मफ़लर
बाज़ार का स्वेटर
बाज़ार का इनर
बाज़ार के दस्ताने पहने
मैं
सर से पाँव तक
अब एक बाज़ारू चीज़ हूँ स्त्रियो!
मैं
फिर कहता हूँ
मेरा नाप लो
मेरे लिए स्वेटर बुनो
उस पर मोर बनाओ या सतिया बनाओ या ॐ बनाओ
मुझे
इस हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में
इतना गर्म बना दो
कि पिघला सकूं
पिछले कई दशकों की बर्फ़!
बर्फ़!
जो घर कर गई है
चूल्हे की आग जैसी
आप स्त्रियों के हृदय तक में!
मानमीत सोनी
Geeta-Kavita Collection of Hindi poems & articles
