काठमांडू पशुपतिनाथ मंदिर में दर्शन – राजीव कृष्ण सक्सेना

My experience of Pashupatinath darshan and the overall experience of visiting the temple and the thoughts it evoked, are expressed in this article. Rajiv Krishna Saxena

काठमांडू  पशुपतिनाथ मंदिर में दर्शन    

युनिवर्सटी के कुछ काम से काठमान्डू गया था | वापसी में इंडियन एयरलाइंस की दिल्‍ली फ्लाइट दोपहर बाद ही थी | सोचा कि क्यों न सुबह सुबह  विश्व प्रसिद्ध  पशुपतिनाध मंदिर के दर्शन कर लिए जाएं । एक नेपाली मित्र को फोन कर के यह इच्छा जताई । मित्र तुरंत बड़े उत्साह से मुझे वहां ले जाने को तैयार हो गया । प्रात: साढ़े छ: बजे उसने होटल से मुझे अपने साथ ले  लिया । काठमान्डू रिंग रोड पर भीड़ नहीं थी  सो  पहुंचने में अधिक देर नहीं लगी ।

मित्र ने बताया कि पशुपतिनाथ  यानि कि शिव जी का यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है और  कम से कम 500 बर्ष पुराना है, यद्यपि आधुनिक रूप में इसका जीर्णोंद्वार  लगभग 400 बर्ष पूर्व नेपा्ल के मल्ल बंशीय राजाओं ने कराया | मेन रोड से दाई ओर यू टर्न ले कर हम एक कच्ची सड़क पर उतर गए। मित्र ने बताया कि मंदिर के चारो तरफ लोगों ने अनाधिकृत  मकान और दुकानें बना लीं थीं जिन्हें सरकार ने कुछ समय पहले गिरा दिया । अब मलबे के ढेर इस पूरे इलाके मे बिखरे पड़े हैं जिन्हें कि उठाया जा रहा है और इस क्षेत्र के विकास की योजना बनाई जा रही हैं ।

कच्ची सड़क के अंत में एक मलबे के ढेर के पास गाड़ी खड़ी कर के हम मंदिर की ओर पैदल चल पड़े । रस्ते के एक ओर खाने पीने की कुछ दुकाने थीं और दूसरी तरफ मंदिर में चढ़ाने के लिये फूल माला  बेचने की कुछ दुकानें थीं। दुकानें क्या थीं बस पेटियों पर बहुत से पत्तों  के दौनों में पीले और सफेद फूल, फूल मालाएं, बेल वृक्ष के पत्ते और रंग बिरंगे कलेवे  के धागे सजे थे । इन्हें बेचने वाली  महिलाएं ऊंचे स्वर में सभी दर्शनार्थियों से यह दौनें खारीद लेने का आग्रह  कर रहीं थीं । मित्र ने दस दस रूपए के दो दौने खारीदे और उनमें से एक मुझे धमा दिया । मंदिर के मुख्य द्वार  पर हिदायतें लिखी थी | मदिर में सिर्फ  हिंदू ही जा सकते थे और चमड़े की कोई भी वस्तु ते जाने की मनाही थी । जूते चप्पल और चमड़े की पेटियां रखने की व्यवस्था द्वार के बाईं  ओर थी । पेटी उतारते हुए मैंने कर्मचारी से पूछा कि मानव  शरीर ही चमड़े का है इसे अंदर ले जाने की मनाही तो नहीं है? कर्मचारी मुस्कुरा कर बोला “छइ  ना ! छइ  ना! ” ( नहीं है ! नहीं है ! ) ।

मंदिरके मुख्य द्वार पर मित्र ने बड़े भक्ति भाव से माथा  टेका मैंने भी हाथ जोड़े और हम अंदर घुसे । मंदिर का अहाता अत्यंत प्राचीन काल का  प्रतीत हुआ । फर्श पत्थरों का था जिस पर नंगे पैर चलना कुछ कठिन था। बीच में ऊंचा मुख्य पशुपतिनाथ  का भव्य मंदिर था जो कि लकड़ी का बना था और पांच मंजलीय पैगोडा नुमा शैली  मे था । मंदिर चौकोर था और एक बड़े से लगभग तीन फुट ऊंचे पत्थर के चबूतरे पर स्थापित था । चबूतरा मंदिर के चारो ओर एक बरामदे का काम भी देता था। मंदिर की चारों दिशाओं में दशनार्थियों के लिये भव्य बड़े बड़े द्वार थे जिनमे से उस समय मात्र एक ही खुला था । भक्तों की लंबी कतार खुले  द्वार  से चबूतरे के बरामदे पर से होती हुई अहाते तक फँली हुई थी | प्रांगण में चारो ओर छोटे छोटे कई और मंदिर भी थे | मित्र ने कहा कि पहले पशुपतिनाध के दर्शन कर लें फिर अन्य मंदिर देखेंगे । हम कतार में लग गए । मैंने चारो ओर का निरीक्षण जारी रखा |

लोगों की भीड़ थी और भीड़ से तनिक भी न डरते हुए अनेक बंदर भी मंदिर के प्रांगण में यथा  तथा धूम रहे थे। लोग मुख्यत: पशुपतिनाथ के दर्शन करने आते और इसके पश्चात्‌ मंदिर के अहाते में उपस्थित अ न्य देवी देवताओं की ड्योढ़ियों पर भी माथा  टेकते । सभी अपनी अपनी दर्शन यात्रा में पूर्ण रूप से मग्न थे । इधर उधर देखने का समय किसी को न धा | मैं अकेला ही भक्तों के चेहरों की भाव भंगिमांओं को पढ़ने का प्रयत्न  कर रहा धा |   पशुपतिनाथ  मंदिर के खुले द्वार के सामने शिव  जी के  वाहन नंदी बैल की विशाल तांबे की चमकती हुई प्रतिमा थी । मंदिर के सभी द्वार और ढलान  बाली छतें चमकते हुए तांबे की पर्त से ढकीं थीं । चमकते हुए तांबे की परतों में सुन्दर नक्काशी और देवी देवताओं की प्रतिमाएं बनी थीं । मंदिर के एक ओर ऊंचे ऊंचे खम्बों पर कुछ नेपाल नरेशों की हाथ जोड़ प्रार्थना करते हुए मूर्तियां थीं । मंदिर के प्रांगण में जगह जगह विभिन्न  देवी, देवताओं, यक्ष, किन्नरों इत्यादि की हाथ जोड़ पशुपतिनाथ  की अर्चना करती अनेको पत्थर और तांबे की प्रतिमाएं थीं । लगता था कि पूरा मंदिर प्रांगण इन मूर्तियों के मूक जयजय कार से गुंजित था । इस गूंज का साथ  दे रहे थे भक्तों के “जय जय शंभो” के नारे और भिन्न भिन्न घंटों की ध्वनियां । पूरा मंदिर का प्रांगण एक अलौकिक से भक्तिभाव से सराबोर था ।

हमारी कतार की दाईं ओर नवग्रह की मूर्तियां प्रांगण के फर्श में जड़ी थीं । इनके इर्द गिर्द बहुत से उपस्थित भक्त नवग्रह पूजा में व्यस्त थे । पूजा करने की विधियां अलग अलग  थीं । कुछा लोग धुटनों के बल बैठ सर को नवग्रहों  के सामने जमीन पर माथा  टेक रहे थे । कुछ हरेक नवग्रह को बारी बारी छू कर हाथ को माथे  पर लगा रहे थे और अन्य कुछ नवग्रहों  पर रूपये पैसे रोली  और चावल इत्यादि चढ़ा रहे थे ।  इधर हमारी कतार धीरे धीरे सरक रही थी । अब हम प्रागण से मदिर के चबूतरे पर पहुंच गए थे । जिन भक्तों के पास कतार में लगने का समय नहीं था वे मंदिर के बंद दरबाजों पर ही अपने फूल इत्यादि रखकर संतोष कर रहे थे । एक अत्यंत वृद्ध महिला बहुत देर से मंदिर के बंद कपाटों पर बैठ पूजा अर्चना कर रही थी । उसकी श्रद्धा गहरी दिखती थी जिससे मुझे ईर्षा हो रही थी। वह कितनी मगन थी भक्ति मे पूरी तरह  भाव विभोर । मुझे लगा कि मानव  ने बौद्धिक विकास तो अवश्य किया है पर इस के बदले व्यक्तिगत श्रद्धा और विश्वास किसी हद तक खोए भी हैं । बौद्धिक  व्यक्ति अपनी ही बौद्धिकता में फंस कर श्रद्धा के उस मुकाम तक नहीं पहुंच पाता जहां वह वृद्ध महिला पहुंची हुई प्रतीत हो रही थी ।

बाइबल कहती है कि जो ज्ञान बढ़ाता है वही अपने लिये अशांति कि खाई खोदता है। आदम और हव्वा की परेशानियां ज्ञान का प्रतिबंधित फल खा कर ही शुरू हुई । श्रद्धा और विश्वास अगर सच्ची मानसिक  शांति दे सकें तो ज्ञान का विशेष लाभ आखिर है क्या? कूछा देर मैं इसी सोच विचार मेंउलझा रहा ।

कुछ व्यक्ति चबूतरे पर से ही मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे । वे चबूतरे पर हमारी कतार तोड़ कर ऐसा कर रहे थे। एक ऐसा ही व्यक्ति परिक्रमा  के बहाने जब मंदिर के खुले द्वार  पर पहुंचा तो एक दम मुड़ा और हाथ जोड़ कर जय जय शंभों कहते हुए पशुपतिनाथ  के दर्शन करने लगा । इस तरह उसने बिना कतार में लगे चालाकी से दर्शन कर लिये | पता नहीं पशुपतिनाथ ने चालाकी से की गई उसकी प्रार्थना को स्वीकार किया या  नकार दिया ।

इसी बीच दर्शन के लिये हमारा नंबर भी आ गया। मित्र ने पुजारी को फूलों का दौना दिया जिसे पुजारी ने विशाल काले पत्थर के शिवलिंग पर चढ़ाया । कुछ फूल और बेलपत्र हमें ल़ौटाए और हम दोनों के माथे  पर टीका लगाया | भक्तिभाव से पशुपतिनाथ को प्रणाम कर हम सीढ़ियों से चबूतरे से नीचे उतर गए । अब हम मंदिर के प्रागण में दूसरे देवी देवताओं के दर्शन में लग गए । मित्र को इसका पुराना  अनुभव था, ऐसा मालूम पड़ रहा था । वह एक के बाद एक छोटे छोटे मंदिरों को जल्दी जल्दी निबटाता चल रहा था। कहीं उसने माथा  टेका, कहीं हाथ जोड़े और कहीं माथे  पर टीका लगवाया । मैं उसके पीछे नौसिखिये की तरह लगभग भाग रहा था और जो वह करता वही मैं भी करता जा रहा था । हमने इस तरह भगवान पशुपतिनाथ की मां का आशीर्वाद  लिया, शेषनाग की शैया पर बिराजे विष्णु भगवान को प्रणाम किया, गणेश और हनुमान जी की प्रतिमाओं पर माथा  टेका, नव  दुर्गाओं की प्रतिमाओं के चरणस्पर्श किये और नवग्रहों पर कुछ सिक्के अर्पित किये |

अब हम भैरव के मंदिर पहुंचे । भैरव भगवान शिव का ही एक रूप हैं । उनकी विशाल प्रतिमा धातु की थी | पैरों के नीचे कोई राक्षस दबा था, हाथ में शस्त्र थे और चेहरे पर क्रोध  की मुद्रा  थी । हमने मूर्ति की परिक्रमा   की | प्रतिमा का बेहद चमकदार रूपहला  धातु लिंग तनी हुई अवस्था में था । मैनें ऐसा पहले कभी नहीं देखा था । एक महिला  पुजारी उस प्रतिमा के आगे निर्विकार  भाव से बैठी थी। उसने हमे अपने पर छिड़कने को जल दिया और हमारे माथे पर एक और टीका भी लगाया । शिव जी की अराधना हिंदू शिवलिंग को पूज कर करते हैं जो कि पार्वती की योनि में स्थापित दिखाया जाता है । भैरव की प्रतिमा में भी लिंग ही बरबस ध्यान आकर्षित कर रहा धा। इस तरह शिव  जी प्रजनन के देवता प्रतीत होते थे । पर हम शिव के संहारक रूप से भी परिचित हैं । इसका एक प्रमाण शीघ्र ही मिलन भी गया ।

मंदिर के पीछे अहाते के एक छोर पर रेलिंग लगी थी जिस पर से लोग नीचे झांक रहे थे । मैं उस ओर बढ़ा । नीचे बागमती नदी बह रही थी । नदी में पानी कम था और दोनों किनारों पर चौड़ी चौड़ी सीमेंट की सीढ़ियाँ थीं जिन पर कुछ साधु धूनि रमाए बैठे थे । हमारी तरफ वाली  सीढ़ियों पर सफेद कपड़े में लिपटे दो शव  रखे थे जिनके सिराहने दीपक जल रहे थे। मित्र ने बताया कि पशुपतिनाथ  में बागमति के दस घाट पर शवों  का अंतिम संस्कार भी होता है । कुछ दूर एक शव  का दाह संस्कार हो रहा था और घुआं ऊपर को उठ रहा था | मृत्यु ही तो जीवन का अंतिम सत्य है।

 मैंने मदिर के प्रांगण में फिर से नजर धुमाई । कितना जीवंत दृष्य था | भक्तों के हुजूम, साधुओं के मत्रपाठ, घंटों और पूजा के स्वर, सब एक दूजे में मिल रहे थे और  एक तरह से रोजमर्रा के जीवन की अंतहीन उधल  पुथल को दर्शा रहे थे । लिंग की प्रमुखता में जीवन के आरंभ का आभास मुखरित था और शवों  के दाह संस्कार में जीवन यात्रा का अंतिम पड़ाव । कुछ ऐसा लगा की भगवान पशुपतिनाध की करूणा दृष्टि के नीचे जीवन के सभी रूप रंग एक साथ  विस्तृत बृंद गान प्रस्तुत कर रहे थे । मन में विचार उठा कि जो है सो यहीं है इसके अलावा और कुछ भी तो नहीं । जीवन आरंभ हो या मृत्यु या फिर जीवन लीला का कोलाहल , यहां सब कुछ खुले में था, बिना किसी लाग लपेट के सबके सामने था |

शैव  साधुओं का एक दल मंदिर में जय शिव शंभों का धोष करता हुआ दाखिल हो रहा था | मित्र ने दूरसे ही मुझे वापस चलने का इशारा किया।  तृप्त मन से मैंने नीचे बहती बागमती के प्रवाह पर एकअंतिम दृष्टि डाली  और वापसी के लिये मित्र के पीछे पीछे मंदिर के मुख्य द्वार  की ओर बढ़ चला |

राजीव कृष्ण सक्सेना (Oct. 2005)

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