रे प्रवासी जाग – रामधारी सिंह दिनकर

There is always nostalgia about the country we left long ago. Even as we wade our way through alien society and land, heart often pines for good old Home. Here is a poem of this nostalgia from Ramdhari Singh Dinkar – Rajiv Krishna Saxena

रे प्रवासी जाग

रे प्रवासी‚ जाग‚ तेरे देश का संवाद आया।

भेदमय संदेश सुन पुलकित खगों ने चंचु खोली‚
प्रेम से झुक–झुक प्रणति में पादपों की पंक्ति डोली।
दूर प्राची की तटी से विश्व के तृण–तृण जगाता‚
फिर उदय की वायु का वन में सुपरिचित नाद आया।

रे प्रवासी‚ जाग‚ तेरे देश का संवाद आया।

व्योम–सर में हो उठा विकसित अरुण आलोक शतदल‚
चिर–दुखी धरणी विभा में हो रही आनंद–विह्वल।
चूम कर प्रति रोम से सर पर चढ़ा वरदान प्रभु का‚
रश्मि–अंजलि में पिता का स्नेह–आशीर्वाद आया।

रे प्रवासी‚ जाग‚ तेरे देश का संवाद आया।

सिंधु–तट का आर्य भावुक आज जग मेरे हृदय में।
खोजता उदगम् विभा का दीप्तमुख विस्मित हृदय में।
उग रहा जिस क्षितिज–रेखा से अरुण‚ उसके परे क्या ?
एक भूला देश धूमिल–सा मुझे क्यो याद आया।

रे प्रवासी‚ जाग‚ तेरे देश का संवाद आया।

∼ रामधारी सिंह ‘दिनकर’

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