पुरबा जो डोल गई – शिवबहादुर सिंह भदौरिया
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घटा घटा आँगन में जूड़े से खोल गई।
बूँदों का लहरा दीवारों को चूम गया
मेरा मन सावन की गलियों में झूम गया
श्याम रंग परियों से अंतर है घिरा हुआ
घर को फिर लौट चला बरसों का फिरा हुआ
मइया के मंदिर में
अम्मा की मानी हुई
डुग डुग डुग डुग डुग बधइया फिर बोल गई।
बरगद की जड़ें पकड़ चरवाहे झूल रहे
विरहा की तानों में विरहा सब भूल रहे
अगली सहालक तक ब्याहों की बात टली
बात बहुत छोटी पर बहुतों को बहुत खली
नीम तले चौरा पर
मीरा की बार बार
गुड़िया के ब्याह वाली चर्चा रस घोल गई।
खनक चूड़ियों की सुनी मेंहदी के पातों ने
कलियों पे रंग फेरा मालिन की बातों ने
घानों के खेतों में गीतों का पहरा है
चिड़ियों की आँखों में ममता का सेहरा है
नदिया से उमक उमक
मछली वह छमक छमक
पानी की चूनर को दुनिया से मोल गई।
झूले के झुमके हैं शाखों के कानों में
शबनम की फिसलन है केले की रानों में
ज्वार और अरहर की हरी हरी सारी है
शनई के फूलों का गोटा किनारी है
गाँवों की रौनक है
मेहनत की बाहों में
धोबिन भी पाटे पर हइया हू बोल गई।
पुरबा जो डोल गई।
∼ शिवबहादुर सिंह भदौरिया
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