अंधा युग (शाप पाने से प्रभु मृत्यु तक) - धर्मवीर भारती

अंधा युग (शाप पाने से प्रभु मृत्यु तक) – धर्मवीर भारती

The great war of Mahabharata left a permanent scar on the Indian psyche. The politics, the moral and ethical issues, the sheer magnitude of human suffering and loss of millions of lives, all this; the event was unparalleled in human history. But what happened after the war? Life simply could not have continued as before. War must have personally hit each and every one in that time. The depression of losing loved ones, frustrating sense of unjust happenings and a sense of utter helpless ness and hopelessness must have gripped the unfortunate survivors. Bharati Ji’s classic play Andha Yug talks about those times. It starts on the last day of the Great War and ends with the demise of Lord Krishna by an arrow of a petty hunter in a forest. The play touches heart intensely and brings tears to eyes. It is a must read for all lovers of Hindi literature. Few excerpts from this work are given here. – Rajiv Krishna Saxena

अंधा युग (शाप पाने से प्रभु मृत्यु तक)

स्वीकार किया यह शाप कृष्ण ने जिस क्षण से
उस क्षण से ज्योति सितारों की पड़ गयी मन्द
युग–युग की संचित मर्यादा निष्प्राण हुई
श्रीहीन हो गये कवियों के सब वर्ण–छन्द

यह शाप सुना सबने पर भय के मारे
माता गान्धारी से कुछ नहीं कहा
पर युग सन्ध्या की कलुषित छाया–जैसा
यह शाप सभी के मन पर टँगा रहा।

पाँचवाँ अंक — विजय : एक क्रमिक आत्महत्या

दिन, हफ्ते, मास, बरस बीते : ब्रहृमास्त्रों से झुलसी धरती
यद्यपि हो आयी हरी–भरी

अभिषेक युधिष्ठिर का सम्पन्न हुआ, फिर से पर पा न सकी
खोयी शोभा कौरव–नगरी।

सब विजयी थे लेकिन सब थे विश्वास–ध्वस्त
थे सूत्रधार खुद कृष्ण किन्तु थे शापग्रस्त

इस तरह पांडव–राज्य हुआ आरम्भ पुण्यहत, अस्त–व्यस्त
थे भीम बुद्धि से मन्द, प्रकृति से अभिमानी

अर्जुन थे असमय वृद्ध, नकुल थे अज्ञानी
सहदेव अर्ध –विकसित थे शैशव से अपने

थे एक युधिष्ठिर जिनके चिन्तित माथे पर
थे लदे हुए भावी विकृत युग के सपने
थे एक वही जो समझे रहे थे क्या होगा

जब शापग्रस्त प्रभु का होगा देहावसान
जो युग हम सब ने रण में मिल कर बोया है
जब वह अंकुर देगा, ढँक लेगा सकल ज्ञान

सीढ़ी पर बैठे घुटनों पर माथा रक्खे
अक्सर डूबे रहते थे निष्फल चिन्तन में
देखा करते थे सूनी–सूनी आँखों से
बाहर फैले–फैले निस्तब्ध तिमिर घन में

यों गये बीतते दिन पांडव शासन के
नित और अशान्त युधिष्ठिर होते जाते
वह विजय और खोखली निकलती आती
विश्वास सभी घन तम में खोते जाते

प्रभु की मृत्यु

वंदना—

तुम जो हो शब्द–ब्रह्म, अर्थों के परम अर्थ जिसका
आश्रय पाकर वाणी होती न व्यर्थ है
तुम्हें नमन, है उन्हें नमन
करते आये हैं जो निर्मल मन

सदियों से लीला का गायन
हरि के रहस्यमय जीवन की!
है जरा अलग वह छोटी–सी
मेरी आस्था की पगडंडी

दो मुझे शब्द, दो रसानुभव, दो अलंकरण
मैं चित्रित करूँ तुम्हारा करूण रहस्य–मरण
वह था प्रभास वन – क्षेत्र, महासागर – तट पर
नभचुम्बी लहरें रह –रह खाती थीं पछाड़

था घुला समुद्री फेन समीर झकोरों में
बह चली हवा, वह खड़–खड़–खड़ कर उठे ताड़
थी वनतुलसा की गंध वहाँ, था पावन छायामय पीपल
जिसके नीचे धरती पर बैठे थे प्रभु शान्त, मौन, निश्चल

लगता था कुछ–कुछ थका हुआ वह नील मेघ–सा तन साँवल
माला के सबसे बड़े कमल में बची एक पँखुरी केवल
पीपल के दो चंचल पातों की छायाएँ
रह–रहकर उनके कंचन माथे पर हिलती थीं

वे पलकें दोनों तन्द्रालस थीं, अधखुल थीं
जो नील कमल की पाँखुरियों–सी खिलती थीं
अपनी दाहिनी जाँघ पर रख
मृग के मुख जैसा बायाँ पग

टिक गये तने से, ले उसाँस
बोले ‘कैसा विचित्र था युग!’

कुछ दूर कँटीली झाड़ी में
छिप कर बैठा था एक व्याध
प्रभु के पग को मृग–वदन समझ
धनु खींच लक्ष्य था रहा साथ।

बुझ गये सभी नक्षत्र, छा गया तिमिर गहन
वह और भयंकर लगने लगा भयंकर वन
जिस क्षण प्रभु ने प्रस्थान किया
द्वापर युग बीत गया उस क्षण

प्रभुहीन धरा पर आस्थाहत
कलियुग ने रक्खा प्रथम चरण
वह और भयंकर लगने लगा भयंकर वन।

~ धर्मवीर भारती

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