बिन दाढ़ी मुख सून - काका हाथरसी

बिन दाढ़ी मुख सून – काका हाथरसी

Here is what Kaka Hathrasi thinks about the beard on men’s face. Kaka writes in his autobiography that once he was travelling by train along with Harivansh Rai Bachchan and the latter gave him the first line of this poem asking him to compose the rest. Here is how Kaka completed the rest. Rajiv Krishna Saxena

बिन दाढ़ी मुख सून

‘काका’ दाढ़ी राखिए, बिन दाढ़ी मुख सून
ज्यों मंसूरी के बिना, व्यर्थ देहरादून
व्यर्थ देहरादून, इसी से नर की शोभा
दाढ़ी से ही प्रगति कर गए संत बिनोवा
मुनि वसिष्ठ यदि दाढ़ी मुंह पर नहीं रखाते
तो भगवान राम के क्या वे गुरू बन जाते?

शेक्सपियर, बर्नार्ड शॉ, टाल्सटॉय, टैगोर
लेनिन, लिंकन बन गए जनता के सिरमौर
जनता के सिरमौर, यही निष्कर्ष निकाला
दाढ़ी थी, इसलिए महाकवि हुए ‘निराला’
कहं ‘काका’, नारी सुंदर लगती साड़ी से
उसी भांति नर की शोभा होती दाढ़ी से।

~ काका हाथरसी

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One comment

  1. यह कविता मेरे लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस कविता को मैं मेरे महाविद्यालय के काव्य गोष्ठी प्रतियोगिता में प्रस्तुत की थी। मैं जीतने वालों की श्रेणी में स्थान तो नहीं बना सकी लेकिन इस छोटी सी कविता के माध्यम से सभी के दिलों में जो स्थान मिला वह किसी जीत से कम भी नहीं। आज भी मेरे वही दोस्त मुझसे इस कविता को वाचने की फरमाईश करते हैं।

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