Yerning to reach mother!
थाम आँचल, थका बालक रो उठा है, है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए, बाँह दो चमकारती–सी बढ़ रही है, साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाये

माँ की याद – सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

This lovely poem conjures up the image of late evening when little ones yearn to go in the soothing arms of mother… Poet misses his mother. Rajiv Krishna Saxena

माँ की याद

चींटियाँ अण्डे उठाकर जा रही हैं,
और चिड़ियाँ नीड़ को चारा दबाए,
धान पर बछड़ा रंभाने लग गया है,
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए,

थाम आँचल, थका बालक रो उठा है,
है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए,
बाँह दो चमकारती–सी बढ़ रही है,
साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाये।

शोर डैनों में छिपाने के लिए अब,
शोर माँ की गोद जाने के लिए अब,
शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब,
शोर परियों की कहानी के लिए अब,

एक मैं ही हूँ कि मेरी सांझ चुप है,
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है,
एक मेरी खाट का विस्तार नभ सा,
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है।

∼ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

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