अगर कहीं मैं घोड़ा होता – सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

If I were a horse, the poet says to children, what all I could do for you! This poem for tiny tots would certainly take them through the hills and valleys of imagination. Rajiv Krishna Saxena.

अगर कहीं मैं घोड़ा होता

अगर कहीं मैं घोड़ा होता
वह भी लंबा चौड़ा होता
तुम्हें पीठ पर बैठा कर के
बहुत तेज मैं दौड़ा होता

पलक झपकते ही ले जाता
दूर पहाड़ी की वादी में
बातें करता हुआ हवा से
बियाबान में आबादी में

किसी झोपड़े के आगे रुक
तुम्हें छाछ और दूध पिलाता
तरह तरह के भोले भोले
इंसानों से तुम्हें मिलाता

उनके संग जंगल में जाकर
मीठे मीठे फल  हम खाते
रंग बिरंगी चिड़ियों से
अपनी अच्छी पहचान बनाते

झाड़ी में दुबके तुमको प्यारे
प्यारे खरगोश दिखाता
और उछलते हुए मेमनों के संग
तुमको खेल खिालाता

रात ढमाढम ढोल झ्माझ्म
झांझ नाच गाने में कटती
हरे भरे जंगल में तुम्हें
दिखाता कैसे मस्ती कटती

सुबह नदी में नहा दिखाता
तुमको कैसे सूरज उगता
कैसे तीतर दौड़ लगाता
कैसे पिंडुक दाना चुगता

बगुले कैसे ध्यान लगाते
मछली शांत डोलती कैसे
और टिटहरी आसमान में
चक्कर काट बोलती कैसे

कैसे आते हिरन झुंड के झुंड
नदी में पानी पीते
कैसे छोड़ निशान पैर के
जाते हैं जंगल में चीते

हम भी वहां निशान छोड़कर
अपने घर  वापस आ जाते

शायद कभी खोजते उसको
और बहुत से बच्चे आते

तब मैं अपने पैर पटक
हिन हिन करता तुम भी खुश होते
कितनी नकली दुनियां यह अपनी
तुम सोते में भी यह कहते

लेकिन अपने मुंह में नहीं
लगाम डालने देता तुमको
प्यार उमड़ने पर वैसे छू
ळोने देता अपनी दुम को

नहीं दुलत्ती तुम्हें झाड़ता
क्योंकि उसे खा कर तुम रोते
लेकिन सच तो यह बच्चो
तब तुम ही मेरी दुम होते।

∼ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

लिंक्स:

 

Check Also

Things we are losing in Indian society

ढूंढते रह जाओगे – अरुण जैमिनी

Times are changing fast. So many things we witnessed in our childhood appear to have …

One comment

  1. Kya baat hai Vinay Pathak le aye hame yaha.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *