बारसीलोना की यात्रा
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एक वैज्ञानिक शोध सम्मेलन में भाग लेने के लिये मुझे स्पेन के प्रसिद्ध शहर बारसीलोना जाना पड़ा।दिल्ली से कोई सीधी हवाई सेवा बारसीलोना के लिये नहीं है। हमे पैरिस में स्टॉपओवर मिला। लम्बी हवाई यात्र्राओं में यह समस्या है कि घंटों तक एक कुरसी पर बैठे रहो।पैरिस पहुंचने में आठ घंटे लगे। हवाई जहाज़ बदल कर जब बारसीलोना पहुंचे तो रवीवार सुबह के दस बजे थे। टैक्सी ले कर होटल पहुंचे और कमरे में सामान रख कर बाहर घूमने चल दिये। बाहर सड़कों पर बहुत कम लोग थे और लगभग सभी दुकानें बंद थीं। कहीं कहीं केक पेस्टी्र की कुछ दुकानें खुली थीं। अक्सर दीवारों और दुकानों के दरवाज़ों पर पेंट से रंग बिरंगी ग्रैफिटि लिखी दिखती थी। हवा तेज थी और सड़कें वीरान और कहीं कहीं विकसित देशों के मुकाबले कुछ गंदी भी। स्पेन आजकल आर्थिक मंदी के दौर से गुज़र रहा है और इसका कुछ आभास हमें दिखा । पर फिर लोगों ने बताया कि रवीवार को शहर बंद रहता है और टूरिस्ट सीज़न अभी शुरू होने को है इसी लिये लोग कम हैं।
दूसरे दिन सम्मेलन में अपना कार्य समप्त होने पर हम घूमने चल दिये। आज सड़कों पर चहल पहल थी पर फिर भी बुजुर्गों की संख्या अपेक्षकृत अधिक लगी। हमने मैट्रो पकड़ी और सीधा बारसीलोना के मुख्य केंद्र “प्लाज़ा कैटलीना” पहुंच गये। वहां भीड़भाड़ थी। बारसीलोना मेंÊ जैसा कि अधिकतर योरोपीय देशों में होता है। सड़क की पटरियों पर रेस्टोरैंट वाले धूप में कुर्सी मेजें लगा देते हैं। सर्दी अच्छी खासी थी और लोग आराम से धूप में बैठ कर खा पी रहे थे। प्लाज़ा कैटलीना दो हो–हो ह्यहॉप इन हॉप आउटहृ बस लाइनों का केंद्र है। इनमें से रैड लाइन शहर के दक्षिणी हिस्से की सैर कराती है और ब्लू लाइन शहर के उत्तरी भाग की ह्यचित्र देखेंहृ। टिकट तेइस यूरो (लगभग 1600 रुपये) का मिला जिससे दिनभर हो–हो बस में बैठ कर सैर की जा सकती थी। हो–हो बसें डबल डैकर होती हैं और यात्री ऊपर की खुली छत पर बैठना पसंद करते हैं। सभी यात्रियों को एक हैडफोन मिलता है जिससे जहां घूम रहे हैं वहां की जनकारी विभिन्न भाषाओं में लगातार मिलती रहती है। हो–हो बस जगह जगह रुकती है और आप चाहें तो किसी भी स्टॉप पर उतर कर वहां के दर्शनीय स्थल देख सकते हैं और फिर अगली हो–हो बस पकड़ कर अपनी यात्रा को जारी रख सकते हैं। हो–हो बस सेवा आजकल विश्व के कई शहरों में उपलब्ध है और हाल में यह सेवा दिल्ली में भी प्रदान की गई है।
बारसीलोना का इतिहास प्राचीन है लगभग 2000 साल पुराना। पुराना शहर एक गांव से विकसित हुआ जैसा कि सभी बड़े शहरों में होता है। आधुनिक बारसीलोना की सड़कों पर दोनो ओर सात आठ मंजिला एपार्टमैंट बिल्डिंगें हैं जो लगभग दशकों पुरानी वास्तुकला दर्शाती हैं ह्यचित्र देखेंहृ। लगभग सभी इमारतों में बालकनियां थीं पर अचरज यह था कि किसी भी बालकनी में लोग नहीं दिखे।सड़कों पर भी चलते फिरते लोग कम ही थे। ऐसा लगा कि एक वीरान शहर की सड़कों पर हम घूम रहे थे। बारसीलोना के नागरिकों का श्वान–प्रेम अनुपम है। अक्सर लोग कुत्ते घुमाते दिखाई पड़ते और कुत्तों की नस्लों में बहुत वेराइटी दिखाई दी।
ऐंटोनी गौडी बारसीलोना का एक विश्व प्रसिद्ध आर्कीटैक्ट था जिसका निधन 1926 में हो गया। पर गौडी के डिज़ाइन्ड घर जो कि लगभग सौ साल पुराने थे शहर में जगह जगह पर थे और पर्यटकों के प्रमुख आकर्षण के केंद्र थे। हमने एक घर “कासा पैडरेरा” विस्तार से देखा और गौडी के सौ साल पहले डिज़ाइन देखकर दंग रह गये ह्यचित्र देखेंहृ। पूरे यूरोप में सौ दो सौ वर्ष पहले वास्तुकला के क्षेत्र में एक विलक्षण सृजनात्मक उबाल आया जिसके फलस्वरूप अशचर्यजनक इमारतों का निर्माण हुआ। ऐंटोनी गौडी का इसमें महत्वपूर्ण योगदान था। “कासा पैडरेरा” आठ मंजिला एपार्टमैंट कौमप्लैक्स है जिसकी छत पर विभिन्न प्रकार की एब्सट्रेक्ट मूर्तियां हैं।कुछा मूर्तियों की बाहरी सतह टूटेफूटे सीरेमिक टाइलों से जड़ी हुईं थीं जो कि चंडीगढ़ मे नेकचंद गार्डन मे लगी मूर्तियों के समान थीं। परछत्ती में पत्थर की टाइलों के मेहराब है जो कि अत्यंत सुंदर और सुदृढ़ हैं। एक एपार्टमैंट भी दर्शकों के लिये खुला है जिसमें सौ वर्ष पहले रहन सहन दर्शाया गया है। उस समय के अमीरों का ठाठबाट देखते ही बनता था।
बारसीलोना का सबसे बड़ा आकर्षण “ला सागरादा फैमिलिया” एक विशाल गिरजाघर है जो कि एंटोनी गौडी के निरीक्षण में बन रहा था और 1923 में गौडी की मृत्यु के बाद भी उसके बनाये नक्शे के अनुसार बनता रहा। यह इतना विशाल है कि सौ वर्षों बाद आज भी इसका निर्माण जारी है (चित्र देखिये)। इस गिरजाघर की मीनारें लगभग 170 मीटर ऊंची हैं और इसके अंदर 8000 व्यक्ति प्रार्थना के लिये बैठ सकते हैं। बारसीलोना में दर्शनीय इमारतों में अंदर जाने की फीस बहुत अधिक लगी। “ला सागरादा फैमिलिया” देखने की फीस लगभग 22 यूरो (1200 रुपये) थी जो कि भारत में ली जाने वाली एंट्री फीस के मुकाबले में बहुत ज्यादा थी। हमे बताया गया कि एंट्री फीस चर्च को बनाने में खर्च की जाएगी। इस चर्च को बनाने में कितनी लागत आई होगी मुझे पता नहीं पर शायद अरबों डालर्स।ऐसी इमारतों को बनाने के पीछे मानव सोच क्या रही होगी। मात्र प्रार्थना करने के लिये जगह बनाने के लिये क्या इतना व्यय करना उचित है? विश्व में इतनी सामाजिक समस्याएं हैं जिसमें अगर यह पैसा खर्च होता तो समाज को कितना लाभ मिलता, काफी समय तक मैं ऐसा सोचता रहा। पिछली कुछ शताब्दियों में विश्व में महान एवम् विशाल आशचर्यचकित करने वाली इमारतें बनीं हैं। इसके उदाहरण भारत में भी उपलब्ध हैं जैसे कि ताजमहलÊ कुतुब मीनार इत्यादि। अगर सोचा जाए तो ऐसी इमारतें बनाने के पीछे मुख्य कारण धनवान सम्राटों और अन्य धनी सामंतों के अहम् के पोषण की पूर्ति ही लगता है।
हम बारसीलोना में इधर उधर घूमते रहे। वहां की मैट्रो के द्वारा यह संभव हो पाया। यद्यपि बारसीलोना की आबादी लगभग 16 लाख है पर यहां की मैट्रो का जाल बहुत विस्तृत है। एक जगह से दूसरी जगह मैट्रो बदल कर आराम से पहुंचा जा सकता है। मैट्रो के डिब्बे दिल्ली की मैट्रो से कुछा अधिक चौड़े हैं और किराया यात्रा की दूरी पर निर्भर नहीं करता। दो यूरो का टिकट ले कर आप कहीं तक भी मैट्रो से जा सकते हैं।मैट्रो के अंदर अक्सर गा बजा कर पैसे मांगने वाले लोग दिखाई पड़ते थे। सड़कों पर भी भिखारी भीख मांगते दिखाई पड़ जाते थे यद्यपि उनकी संख्या भारतीय शहरों के मुकाबले बहुत कम थी। बारसीलोना के दक्षिण में समुद्र है और उत्तर में पहाड़ियां। समुद्र तट पर भी हम गए। बारसीलोना सी–बीच उजाड़ था क्योंकि ढंड ज्यादा थी और हवा तेज चल रही थी।समुद्र तट पर एक माल भी थी जिसमे कई रैस्टोरैंट भी थे। अजीब बात यह थी कि माल में कोई पब्लिक यूरेनल नहीं था। यूरेनल में जाने की फीस थी साठ सैंट (चालिस रुपये)।
एक अन्य बात जो कि हमने नोटिस की वह थी बारसीलोना में भारतीय और पाकिस्तानी मूल के लोगों की बहुतायत।हवाईजाहज में भी मेरे साथ बैठा व्यक्ति जालंधर से था और काम पर वापस स्पेन जा रहा था। मेरी उत्सुकता बढ़ी और मैंने पूछताछ की। वह लगभग 40 बष का युवक मात्र दसवीं पास था और बारसीलोना के एक पाकिस्तानी व्यक्ति द्वारा चलाए जाने वाले एक रस्टिोरैंट में तंदूर लगाने की नौकरी करता था। साल में दो तीन महीने घर वापस आता बीबी और दो बच्चों से मिलने। तंखा थी एक हज़ार यूरो प्रतिमाह ह्यलगभग 70 हज़ार रुपयेहृ। बारसीलोना में हमने देखा कि बहुत सी छोटी छोटी दुकाने भरतीय विशेषतः कशमीरी एवं पाकिस्तानी और नैपाली लोगों की थीं। हर ऐसी जगह “आप कहां से हैं” इत्यादि प्रश्न सुनने को मिल जाते।
महान चित्रकार पिकासो ने बारसीलोना में कई वर्ष बिताए थे। उसके चित्रों का एक संग्रहालय भी बारस्ीलोना में है जो कि पर्यटकों में बहुत लोकप्रिय है। यह संग्रहालय बारसीलोना के प्राचीन शहर में है जहां दिल्ली के चांदनी चौक जैसी संकरी गलियां हैं।फर्क यह था कि यह गलियां साफ सुथरी थीं और भीड़भाड़ ज्यादा नहीं थी। संग्रहालय के पूर्वी भाग में पिकासो की बनाई कलाकृतियां रियलिस्टिक थीं यानि कि बिल्कुल समझ में आने वाली। एक ऐसे ही चित्र में एक शय्या पर लेटी बीमार स्त्री को दिखाया गया है ह्यचित्र देखेंहृ। फिर बाद वाले चित्र अपेक्षकृत जटिल थे और साधारण व्यक्ति की समझ से परे लगते थे। इस नवीन चित्रकला के नमूने देख कर मुझे बचपन में आकाशवाणी पर सुनी एक कविता याद हो आई जिसमें कवि एक एब्सट्रैक्ट आर्ट की नुमाइश देखने गया और फिर उसका उल्लेख किया।पूरी कविता तो मुझे याद नहीं और ना ही शायर का नाम, पर उस कविता की कुछ लाइनें इस प्रकार थीं :
नक्शे महबूब मुसव्विर ने सज़ा रक्खा था
मुझसे पूछो तो तिपाई पे घड़ा रक्खा था।
नाक वो नाक ख्.ातरनाक जिसे कहते हैं
टांग खींची थी कि मिसवाक जिसे कहते हैं।
(मुसव्विर ˭ चित्रकार; मिसवाक ˭ दातौन)
कुछ देर पिकासो की पेंटिंग देख कर और वह पुरानी कविता याद कर के मैं मन ही मन हसता रहा। पर सच तो यह है कि रियलिस्टिक पेंटिंगस आजकाल लोगों को इतना आकर्षित नहीं करतीं और आधुनिक चित्रकला यद्यपि समझ में न आए फिर भी उसकी पहचान एवं स्वीकारता समाज में तेजी से बढ़ रही है।
चार दिन की यात्रा समप्त होने पर बारसीलोना से विदाई लेने का समय आया। हवाईअड्डे पहुंचे तो तेजी से बारिश हो रही थी। पिछली रात पाकिस्तानी रेस्टारैंट से पैक कराए स्वदिष्ट आलू के परांठे खाते हुए हम विशाल खिड़कियों से एयरपोर्ट पर झमाझम बरसते पानी को देखते रहे। बरसीलोना अमरीकी शहरों ही भांति समृद्व तो नहीं लगा पर वहां की वास्तुकला एवं प्राचीनता ने हमारा मन मोह लिया। अगर आपको मौका मिले तो मैं निसंदेह बरसीलोना की सिफारिश एक टूरिस्ट दर्शनीय नगर के रूप में कर सकता हूं।
~ राजीव कृष्ण सक्सेना
मार्च 14 2013
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