प्रार्थना की सफलता के गुर

प्रार्थना की सफलता के गुर – राजीव कृष्ण सक्सेना

We pray to various Gods. Sometimes the prayers are answered and sometimes they remain unanswered. In this article, the mechanism of how prayers are answered, as per the views of “Patanjali Yoga Darshana”, is explained. Please read on as this can benefit you by making your prayers more effective. – Rajiv Krishna Saxena

प्रार्थना की सफलता के गुर

प्रार्थना करने का चलन किसी न किसी रूप में लगभग सभी धर्मों में है। करने की विधि भी एक सी ही होती है। शांति से कुछ समय निकालें आंखें मूंद कर जो भी प्रभु से या ईष्ट देवता से कहना चाहें कह दें। कुछ मांगना चाहें तो मांग लें। स्थान विशेष का महत्व इसमें बहुत हो सकता है। आपको किसी मंदिर विशेष में व्यक्तिगत आस्था हो सकती है। हो सकता है क्योंकि वहां मांगी आपकी मुरादें बहुदा प्राप्त हो जाती हो। इसी तरह कुछ दरगाहें या कुछ गिरजाघर मुरादें पानें के लिये प्रसिद्ध हो जाते हैं और लोगों के हुजूम वहां अपनी प्रार्थनाएं ले कर जाते रहते हैं।

मात्र सांख्यकी (स्टैटीस्टिक्स) के नियमों के अनुसार आपकी कुछ इच्छाएं बिना प्रार्थना करे भी पूरी हो सकती हैं।जैसे अगर आप कई बार सिक्का उछालें और हैड या टेल मांगें तो 50 प्रतिशत बार आपका मांगा पासा ही आएगा। इसी तरह अगर अनेक विवाहित युगल संतान के रूप में पुत्र या पुत्री प्राप्ति की इच्छा करें तो उनमें से 50 प्रतिशत की इच्छा बिना किसी प्रार्थना के पूरी हो जाएगी। अगर वे सभी अपने अपने ईष्ट देवता से मनचाही संतान की प्रार्थना करते रहे हों तो 50 प्रतिशत की आस्था अपने ईष्ट देव के प्रति और दृढ़ हो जाएगी।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में प्रार्थना का फल मिलता है या प्रार्थना का सफल होना मात्र संयोग होता है। प्रार्थना सफल होने का कारण क्या है? क्या वास्तव में कोई देवता विशेष पीर या औलिया कहीं रहते हैं और ध्यान से अपने भक्तों की मुरादों का लेखा जोखा रखते रहते हैं और निर्णय लेते रहते हैं कि मुराद दी जाए या भक्त को खाली हाथ वापस भेजा जाए? अगर ध्यान से इसे सोचें तो बड़ा अटपटा लगता है। देवता कैसे और कहां से अपने भक्तों के मन की इच्छा जान पाते हैं? हजारों लाखों प्रार्थनाओं में से किसे पूरा करें और कैसे करें इसका निर्णय कैसे लेते हैं? इच्छा पूरी करना भी इतना आसान नहीं लगता। अगर शर्मा जी की प्रमोशन की प्रार्थना स्वीकार करनी हो तो फिर देखना पड़ेगा कि उनके दफ्तर में और कौन कौन से लोग हैं जो कि शर्मा जी के प्रतियोगी हैं। शर्मा जी की प्रार्थना स्वीकार करने का मतलब है कि और लोगों का प्रमोशन रोका जाए। फिर बिचारे देवता को यह भी सोचना पड़ेगा कि किन किन उपायों द्वारा शर्मा जी के प्रतिद्वंदियों का काम खराब किया जाय। और खुदा ना खास्ता अगर शर्मा जी के किसी प्रतिद्वंदी ने भी प्रमोशन की प्रार्थना कर रखी हो तो फिर देवता की मुसीबत और बढ़ेगी ही। इसी समस्या का दूसरा पहलू भी गंभीर है। अगर शर्मा जी के प्रतिद्वंदी ने किसी अन्य देवता के पास अपनी अर्जी लगा रखी हो तो फिर तो देवताओं की आपस में ठन भी सकती है।

क्या सच में यह सब होता है? इस अनंत सृष्टि के विस्तार में धरती मात्र एक धूल के कण जैसी है। इस कण स्वरूप धरती पर अल्प काल से अनायास ही कुछ मानव रूपी प्राणीयों का विकास हो गया है। उन प्राणियों की इच्छाओं का क्या इतना महत्व है कि पहले तो देवता हों और फिर उनकी इच्छाएं सुनें और इसी जंजाल में हरदम लगे रहें? आखिर इस सब की आवश्यक्ता क्या है? हम अपने आप को बेवकूफ तो नहीं बना रहे? क्या पूजा–पाठ और प्रार्थना में वास्तविक रूप में कोई सत्य नहीं है? क्या यह मात्र व्यक्तिगत आस्था का प्रश्न है? वैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करें तो यही सत्य प्रतीत होता है।

भारत के प्राचीनतम दर्शनों में से प्रमुख सांख्य योग दर्शन में इस समस्या का निवारण एक दूसरी दृष्टि से हुआ है। आपमे से कइयों को यह जान कर आश्चर्य होगा कि सांख्य दर्शन में इश्वर को मान्यता नहीं मिली है। महर्षि पातंजली के योग सूत्रों में भी ईश्वर की कोई विशेष भूमिका नहीं है। आप अवश्य सोचेंगे कि इश्वर विहीन और देवता विहीन जगत में पूजा पाठ और प्रार्थना का क्या स्थान हो सकता है।आखिर अगर कोई सुनने वाला ही न हो तो फिर प्रार्थना करने का क्या लाभ है? पर इन दर्शनों में “प्राण” तत्व का एक रहस्यमय विचार है जिससे प्रार्थना का महत्व समझ में आता है। ऊर्जा ह्यएनर्जीहृ का ही एक रूप प्राण कहलाता है। पूरे संसार में जहां भी जो भी वस्तु चलती है उसके पीछे कोई न कोई ऊर्जा अवश्य है। पैट्रोल जलाने से प्राप्त उर्जा मोटर गाड़ी चलाती है। मानव शरीर को खाद्यपदार्थों से और वनस्पतियों को सूर्यकिरणों से ऊर्जा मिलती है। ग्रहों नक्षत्रों की गति सृष्टि के आरंभ में हुए बिग बैंग धमाके से प्राप्त ऊर्जा से होती है। चाहे फूलों के इर्द गिर्द चक्कर काटती तितली हो, बन में कुलाचें भरता मृग या समुद्र में आहार ढूंढती मछली, सभी किसी न किसी प्रकार की ऊर्जा से चलायमान हैं।अब इसी विचार को आगे बढ़ाएं तो हम पाते हैं कि यह भिन्न भिन्न प्रतीत होने वाली सभी ऊर्जाएं अंततः एक ही हैं। विश्व में एक ही प्राण है पर वह असंख्य कार्यों में झलकता है। जो ऊर्जा या प्राण तितलियों के पंखों में संचार करते हैं, वही सागर की लहरों के तट पर अनवरत प्रहार करने में भी प्रेरक हंै और वही प्राण हमें अपने हाथ पांव हिलाने में भी सहायक होता है। प्रकृति में आप जहां भी किसी वस्तु में गति देखें तो वह प्राण ऊर्जा के कारण ही है।

विश्व में अधिकतर वस्तुओं में गति चेतना द्वारा संचालित नहीं होती। नदी का जल अपने आप गुरूत्वाकर्षण की शक्ति से आगे बढ़ता रहता है। कोई सोच विचार कर इस पानी के बहाव का संचालन नहीं करता। यही सत्य हवा के चलने में, बादलों के गरजने में और ग्रहों की गति के बारे में भी स्पष्ट है।केवल चेतनायुक्त जीवों में ही प्राणों का इच्छानुसार संचालन देखने को मिलता है। चेतन जीव अपनी कई मांसपेशियों को इच्छानुसार गति प्रदान कर सकते हैं।मानव और कई जीव जंतु इच्छानुसार इधर उधर भ्रमण कर सकते हैं। विश्व व्यापी एक मात्र प्राण का अति सूक्षम भाग जब हमारे शरीर में कार्य करता है तो उस समय वह हमारी चोतना द्वारा संचालित होता है। इसी बात को हम आगे बढ़ाएं तो हम समझ सकते हैं कि अगर हम अपनी चेतना का और अधिक विकास करें तो हम धीरे–धीरे अपने शरीर के बाहर कार्यरत प्राण का संचालन भी कर पाएंगे क्योंकि विश्व प्राण आंतरिक और बाहरी भागों में विभक्त नहीं है, एक ही है। इसी तरह चेतना का पूर्ण विकास हो जाने पर पूरे विश्व मे निहित प्राण ऊर्जा का संचालन भी हम कर पाएंगे। और अगर हम ऐसा कर पाएं तो हम एक प्रकार से इस विश्व के नियंता बन जाएंगे। योग दर्शन के अनुसार यह संभव है। योगी अपनी चेतना का विकास कर के प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकता है। चेतना के विकास का अर्थ मन को एकाग्र करना है और इसकी प्रक्रिया अश्टांग योग के रूप में पातंजली योग दर्शन के सूत्रों में बताई गई है। योग द्वारा निर्देशित प्राणायाम का वास्तविक अर्थ प्राणों के संचालन की दक्षता ही है। प्राणायाम को आप में से कई श्वास को लेने और छोड़ने की योगिक क्रियाओं को रूप में जानते होंगे।पर इसका मूल उद्देश्य प्राणो के संचालन की दक्षता प्राप्त करना ही है। योग के अंग प्राणायाम, धारणा, ध्यान और समाधि सधने पर धीरे धीरे आपका अपने जीवन और उसे प्रभावित करने वाली अन्य बाहरी शक्तियों पर अधिकार प्राप्त होने लगता है। इन सभी क्रियाओं का मूल मन की एकाग्रता है।एकाग्रता सधने के साथ साथ आप पाएंगे कि जो आप चाहते है. वही अनायास ही आपके आस पास धटित होने लगेगा। यही विश्व में निहित प्राण उर्जा पर आपके अधिकार बढ़ने के संकेत हैं। योग द्वारा योगी कई शक्तियों का धारक बन सकता है। यह शक्तियां योग दर्शन के विभूति पाद में बतलाई गई हैं। पर योग दर्शन में यह भी कहा गया है कि यह शक्तियां योगी को प्राप्त तो अवश्य होती हैं पर इन शक्तियों में अगर योगी उलझ जाए तो फिर वह अपने मूल उद्देश्य जो कि प्रभु दर्शन होता है, उससे भटक जाता है। अतः पा जाने पर भी योगी के लिये इन शक्तियों का त्याग करना ही उचित है।

अब फिर से अपने मूल प्रश्न प्रार्थना पर आएं तो अब हम प्रार्थना के सत्य को कुछ कुछ समझ सकते हैं। आपने अक्सर सुना होगा कि सच्चे मन से की गई प्रार्थना ही सफल होती है। यहां सच्चे मन का अर्थ एकाग्र मन ही मानना होगा। हम सब जानते हैं कि मन इधर उधर दौड़ता रहता है।इसे स्थिर अथवा एकाग्र रखना अत्यंत कठिन है। मन को स्थिर करना एक तरह से धर्म का मूल है। यह अत्यंत कठिन कार्य है। गीता में अर्जुन भगवान कृष्ण से कहता हैः

चंचल है बलिष्ठ दृढ़ मन यह, हे केशव! हम चाहें भी तो
वशीकरण दुष्कर इसका, ज्यों वश में करना हो वायु को ———-गीता काव्य माधुरी 6।34

भगवान उत्तर देते हैंः

निसंदेह हे अर्जुन! निग्रह चंचल मन का, बहुत कठिन है
सफल वही अभ्यास करे, वैराग्य सहित जो भी निस दिन है ——–गीता काव्य माधुरी 6।35

यद्यपि मन को काबू करना कठिन कार्य है पर लगातार योग के अभ्यास से यह संभव है। अगर आपका मन एकाग्र नहीं है तो आपकी प्रार्थना का सफल होना सिक्के उछालने के समान ही है। ऐसे में अगर प्रार्थना सफल हो तो वह मात्र संयोग ही होगा। पर अगर एकाग्र मन से कुुछ मांगा जाए तो प्रार्थना का सफल होना निश्चित है। ऐसा होने पर आपकी सफलता का कारण कोई देवता इत्यादि न हो कर आपकी अपनी मानसिक एकाग्रता और चेतना का विकास मात्र ही होगा। देवता इत्यादि की धारणा आपके मन को एकाग्र करने में सहायक अवश्य हो सकती है।ईष्ट देवता की धारणा का इतना लाभ अवश्य मिलता है। पर अंततः अपकी अपनी मानसिक एकाग्रता ही आपकी सच्ची सहायक है।

पातंजली योग दर्शन का मूल सूत्र कहता है “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” यानि कि योग का मतलब मन में उठनें वाली वृत्तियों ह्यविचारोंहृ को रोकना और मन को एकाग्र करना ही है। अभ्यास द्वारा जैसे जैसे मन एकाग्र होने लगता है आपका प्रभाव प्राण के संचालन पर पड़ना आरंभ हो जाता है। तभी आपकी प्रार्थनाएं सफल होने लगती हैं। प्रार्थना की सफलता का गुर भी यही है।

~ राजीव कृष्ण सक्सेना (24 Jan 2009)

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