तत्वचिंतनः भाग 9 – फलसफा शादी का
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अभी हाल में ही एक फिल्मी गाना रेडियो और टीवी पर बहुत सुन गया।
“ज़ोर का झटका हाय ज़ोरों से लगा
शादी बन गई उम्र कैद की सज़ा”
गाना सुन कर लोग हंसते मुस्कुराते हैं जैसे कि उनकी दिल की बात ही कही जा रही हो। लगभग सभी महसूस करने लगे हैं कि शादी के बारे में समाज की धारणा धीरे धीरे बदल रही है। एक समय था कि हमारे देश में तलाक एक अनहोनी सी घटना थी पर आजकल धड़ल्ले से तलाक हो रहे हैं। फैमिनिज्म, करियरर्स और व्यक्तिवाद के इस युग में शादी की पुरानी धारणा घराशाही सी होती लगती है। ऐसे में इस विषय पर कुछ सोच विचार आवश्यक है।
शादी का मूल उद्देश्य संतान प्राप्ति होता है और संतानोत्पत्ती के बिना मानव जाति कायम नहीं रह सकती। वस्तुतः हरेक जीव प्रजाति का अस्तित्व उस जाति की प्रजनन–समर्थता पर निर्भर रहता है। प्रकृति के दृष्टिकोण से यौन–स्वछंदता जिससे कि ज्यादा से ज्यादा प्रजनन हो सके एक जीव प्रजाति के लिये श्रेयस्कर है और प्रजनन को बढ़ावा देने के प्रयोजन से ही नर किसी भी मादा से‚ व मादा किसी भी नर के साथ प्रजनन के लिये मुक्त होते हैं।फिर मानव समाज ने यौन–स्वछंदता–विरोधी एक पत्नी वाली संस्था‚ यानि कि शादी को अंगीकार क्यों किया? शादी और परिवार की संस्थाओं का विकास मानव समाज की कुछ विशेष जरूरतों के कारण हुआ है। मानव समाज की मूल इकाई एक परिवार है और समाज जिस रूप में हम देखते हैं वह बिना पारिवारिक इकाई के संभव ही नहीं है। शादी इस मूल इकाई को बरकरार रखती है। अगर यह परिवार की संस्था नष्ट हो गई तो समाज का वर्तमान रूप भी बिखर जाएगा। अपना अस्तित्व कायम रखने के लिये समाज के लिये अत्यंत आवश्यक है कि वह परिवार की संस्था को किसी भी तरह बनाए रखे। इसीलिये समाज विवाह के लिये इतने कायदे कानून बनाता है और शादी की नीव पर स्थित परिवार से कुछ निर्धारित कर्तव्यों की अपेक्षा भी रखता है।
पहला कर्तव्य यह कि परिवार में पति पत्नी बच्चे पैदा करेंगे और उनको पालपोस कर समाज को कायम रखने वाली अगली पीढ़ी के रूप में तैयार करेंगे। बच्चे पैदा करना और उनकी परवरिश करना कठिन कार्य हैं। यौनाकर्षण एवं यौनक्र्रिया में आनंद की मूल वृत्तियां हर प्राणी में इसी कठिन कार्य को कर गुजरने में प्रोत्साहन के रूप में विकसित हुई हैं। इस बारे में मैं “फलसफा प्रेम का” के शीर्षक से एक लेख लिख चुका हूं जो कि इस वेबसाइट पर उपलब्ध है। पर खेल यहीं समाप्त नहीं हो जाता। बच्चों को पैदा कर देना ही प्रजाति के जीवित रहने के लिये काफी नहीं है। नवजात बच्चे अत्यंत असहाय होते हैं। परवरिश न मिलने पर वह जीवित नहीं रह सकते। पकृति ने इसी कारण से मां और उसके बच्चों के बीच के प्रेम की एक और अत्यंत शक्तिशाली वृत्ति विकसित की। इससे हम समझ सकते हैं कि किसी भी जीव–प्रजाति को जीवित रखने के लिये दो मूल वृत्तियां अत्यंत आवश्यक हैं। पहली नर और मादा यानि की स्त्री और परुष के बीच का आकर्षण जिससे कि प्रजनन हो सके और दूसरी मां और बच्चों के बीच अटूट प्रेम जिससे बच्चों की परवरिश हो सके। इन दो मूल वृत्तियों पर ही जीवन कायम है। समाज में इन दो मूल वृत्तियों पर आधारित विवाह संस्था इसीलिये सर्वोपरि है।
पर सवाल उठता है कि जानवर भी इन्ही दो मूल वृत्तियों की सहायता से अपनी प्रजाति कायम रखते हैं पर उनमें मानव जैसी परिवार की संस्था क्यों नहीं होती। इस विसंगति का हल मानव की विकसित बुद्धि में मिलता है। इस बुद्धि के कारण ही मानव जानवरों से बेहद भिन्न है। धन संचय एवं घर जमीन और संपत्ती के मालिकाना हक की धारणाएं मनवीय बुद्धि की उपज हैं और जानवरों में नहीं पाई जातीं।मृत्यु के बाद यह सब बाल बच्चों को सौंपना भी मानवीय कृत हैं। यौन–स्वछंदता को रोकना इसलिये जरूरी था कि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बच्चे का बाप कौन है जिसे कि पिता की मृत्योपरांत सब संपत्ती मिल सके।परिवार की संस्था के विकास का एक प्रमुख कारण बच्चे के पिता की सही जानकारी था। एक दूसरा पहलू यह भी है कि मानव ने अपनी बुद्धि से पकृति पर नियंत्रण सीखा और एक स्वस्थ एवं लंबी आयु पाप्त की। हमने घर बनाए, खेती बाड़ी का विकास किया, वस्त्रों का आविष्कार किया, दवाओं एवं टीकों का आविष्कार किया जिससे कि व्याधियों पर काबू पाया गया और एक लंबी आयुप्राप्ति की नीव पड़ी। प्रकृति निष्ठुर है और पजनन शक्ति क्षीण होने के उपरांत उसके पास वृद्ध जीवों का कोई विशेष उपयोग नहीं है। पर ज्यों ज्यों मानव आयु बढ़ी, यह पश्न आया की इस लंबी आयु का आखिर करें क्या? बच्चे पैदा करने और उनकी परवरिश की उम्र गुज़र जाने पर भी जीवित रहने पर एक खालीपन का अहसास हुआ जिसका हल भी शादी व परिवार की संस्थाओं ने दिया। पति पत्नी के रूप में बाकी जीवन गुजारने से खालीपन और निस्सारता के अहसास से मुक्ति मिली। वृद्ध माता पिता न केवल एक दूसरे के संबल के रूप में उभरे पर उन्होंने अपने नाती पोतों की परवरिश में भी हिस्सा लेना शुरू किया। उससे परिवार और विवाह की संस्थाओं की नीव और भी मज़बूत होती गई।
पर समाज तेजी से बदल रहा है और इस पोस्ट मॉडर्न युग में लोगों की आस्था पुराने रीति रिवाज, पुरानी संस्थाओं और पुराने सोच इत्यादि से हट रही है। समाज मे सबसे बड़ा बदलाव म्हिला सशक्तिकरण और उनकी सोच में बदलाव से आया है। पढ़ना लिखना करियर की प्ररिस्पर्धा में जी जान से लगना जो कि पहले लड़के ही करते थे अब लड़कियां भी करती हैं। मानव बुद्धि के सर्वांग विकास के साथ यह होना ही था। पर सच यह भी है कि महिलाओं के आदिकालीन समय से चलते आए कार्य यानि कि घर परिवार और बच्चों की परवरिश आदि इस नये युग में अवरुद्ध हो रहे हैं।इससे प्राचीन शादी और परिवार की संस्थाओं पर कुठाराघात हुआ है। समाज की मूल इकाई परिवार में भी अभूतपूर्व बदलाव आ रहे हैं। संयुक्त परिवार सिमट कर नाभकीय परिवार ह्यन्यूक्लियर फैमिलीहृ में बदल रहा है। इसका एक सीधा असर मानव समाज पर पड़ेगा और पड़ रहा है। आज के नवयुवक और नवयुवतियों को इस नये परिप्रेक्ष्य में अपनी राह स्वयं चुननी होगी।
पहले तो आप प्रेम की वास्तिविकता को पहचानिये। युवा जन यह समझते हैं कि जिस व्यक्ति विशेष से उन्हें प्रेम हो गया है वह कोई अत्यंत विलक्षण व्यक्ति है जिसे भगवान ने उनके लिये ही बनाया है। कुछ युवा प्रेम में पागल हो जाते हैं और कई हत्याएं एवं आत्महत्याएं प्रेम के कारण ही होती हैं। यह भ्रांति है कि कि आप एक व्यक्ति विशेष के प्रेमपाश में इसलिये पड़ जाते हैं कि वह सर्वगुण संपन्न है‚ औरों से बहुत भिन्न है और दुनियां मे सबसे खूबसूरत है इत्यादि इत्यादि। या कि आप उस व्यक्ति विशेष के बिना जीवित नहीं रह सकते। सच तो यह है कि पहले अनायास और बिना किसी खास कारण के किसी व्यक्ति से प्रेम हो जाता है और उसके फलस्वरूप वह व्यक्ति आपको प्रेम के मायावी चश्मे से लाजवाब दिखने लगता है।उसके दुर्गुण भी आपको सदगुण लगते हैं। यह भ्रांति है कि दुनियां में कोई स्त्री विशेष किसी पुरुष वशेष के लिये बनी है। सच तो यह है कि युवा लड़के और लड़कियां आग और लकड़ी के समान होते हैं। सही उम्र में लगभग किसी भी लड़की और लड़के को साथ रहने का और मेलजोल बढ़ाने का मौका दिया जाय तो लकड़ी का आग पकड़ना यानि कि प्रेम हो जाना अत्यंत स्वाभाविक है।यह तो मात्र प्रकृति का मायाजाल है। प्रेम का बुखार ज्यादा समय नहीं चलता और शीघ्र्र्र ही जब यह मायाजाल टूटता है तो असलियत सामने आती है।
अपने जीवन साथी का निर्णय अगर आप इस मायाजाल से मुक्त हो कर ले सकें तो यह शादी को दीर्घकाल तक बनाए रखने में सहायता कर सकता है। मानव परिप्रेक्ष्य में शादी की असली कसौटी उसकी दीर्घकालीनता में निहित है। जवानी का समय कैरियर व्यवसाय और बच्चे पालने में कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। संगी साथी की असली आवश्यक्ता बुढ़ापे में पड़ती है। यह वह समय होता है जब किसी और के पास आप के पास बैठने का समय नहीं होता। तब एक ऐसे संगी साथी का होना जो जीवन भर आप के साथ चला हो, जिसके साथ आपने जीवन भर अपने सारे सुख दुख बाँटे हों, जो आपको क्या अच्छा लगता है क्या नहीं सब बाखूबी जानता हो, निश्चित तौर पर सबसे बड़ी नियामत है।
आरंभिक अल्पकालीन प्रेम या यौनाकर्षण के परे शादी की सफलता के लिये कुछ व्यवहारिक बातों का ध्यान रखा जाना जरूरी है। शादी विशेषतः भारत जैसे समाज में, दो परिवारों का मिलन होती है। जहां तक हो सके अपना जीवनसाथी ऐसा चुनिये जिसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि लगभग वैसी ही हो जैसी कि आपके परिवार की जिससे कि आप दोनों के मूल्यों में एक समरसता हो।बहुत गरीब और बहुत अमीर परिवारों में आपसी विवाह संबंध गड़बड़ा सकते हैं।एक बुद्धिजीवी परिवार की लड़की का एक व्यवसायिक परिवार में खपना कठिन हो सकता है। बहुत फैशन करने वाली और फजूल खर्च करने वाली एवं आलसी लड़की एक सत्विक और कर्मठ परिवार में नहीं खप सकती। एक बात और – चेहरे या शरीर की सुंदरता का शादी की सफलता से कुछ ख़ास सरोकार नहीं होता। हो सकता है कि एक बहुत सुंदर लड़की या लड़का शादी के मंच पर असफल सिद्ध हों और एक साधारण से युगल की शादी बेहद सफल हो। सुंदरता पर अधिक ध्यान न दें।सूरत नहीं यहां सीरत ही महत्वपूर्ण है।
पहले बहू घर में इस विचार को लेकर आती थी कि वह शीघ्र ही लड़के के परिवार का अभिन्न अंग बन जाएगी।अब यह सोच बदलती लगती है। कई लड़कियां यह सोचती हैं कि शादी के बाद पति पर मात्र उनका अधिकार होगा और वह जैसा चाहेंगी वैसा पति से कराएंगी और अंततः उसे अपने माँ बाप से विलग करेंगी। सच तो यह है कि जिन माता पिता ने लड़के पर तन मन धन न्यौछावर किया और उसे पढ़ालिखा कर बड़ा किया, उनकी अपने पुत्र से कुछ अपेक्षाएं होना स्वाभाविक है। विशेषतः अगर वह लड़का मां बाप का इकलौता बेटा है और माँ बाप के बुढ़ापे की लाठी है तो पत्नी का उस लड़के को अपने माता पिता से दूर करने की स्वार्थपारायण चेष्टा सरासर निंदनीय है और इससे बचना चाहिये। यह चेष्टा अक्सर परिवारिक कलह का एक मूल कारण बनती है। लड़कियों को यह निर्णय कर लेना चाहिये कि वे अपने होने वाले पति के वृहद परिवार में शामिल होने को और घुलमिल जाने तैयार हैं या नहीं। अगर वे इस बात के लिये तैयार नहीं हैं तो उन्हें ऐसे लड़कों से दूर रहना चाहिये जो अपने माता पिता की एकमात्र संतान हैं और जिनके लिये परिवार त्यागना संभव नहीं होगा।उन्हें तो ऐसे लड़के की तलाश करनी चाहिये जिस पर घर परिवार की कोई जिम्मेदारी न हो। यह तय करना भी आवश्यक है कि शादी के बाद क्या पत्नी करियर बनाने में लगी रहेगी या परिवार बढ़ाने में रुचि लेगी। आज के युग में शादी से पहले ऐसी बातों का खुलासा जरूरी है, अन्यथा बाद में मनमुटाव होना स्वाभाविक है।
जैसा कि मैंने पहले भी लिखा था (लेख: तत्व चिंतन भाग 8 – बुद्धि वरदान या अभिशाप) मानव बुद्धि का तीव्र विस्तार मानव प्रजाति को उसकी पुरानी प्राकृतिक राह से हटा कर शनै शनै एक ऐसी राह पर ले जा रहा है जिस पर मानव समाज के वर्तमान स्वरूप का लोप हो जाना तय है।यह नई राह अच्छी है या बुरी इसका मूल्यांकन कठिन है और इस बात पर निर्भर करता है कि आप इस परिवर्तन को किस परिप्रेक्ष्य में देखते हैं। इस बदलाव का शोक मनाना भी व्यर्थ है क्योंकि अगर मानव को एक विलक्षण बुद्धि मिली है तो उसके दुधारी परिणाम होंगे ही और इन परिवर्तनों को हमें स्वीकारना ही होगा। बुद्धि विकास से व्यक्तिगत स्वार्थ उभरते हैं और लोग समाज से कट कर अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं पूरा करने में अधिक ध्यान देते हैं। इस परिवर्तन की अत्यंत बलिष्ठ धारा को रोकने में या इसको पलटने में हम नितांत असमर्थ हैं। समाज के आज के स्वरूप की पोषक शादी की संस्था भी आने वाले युगों में अपना प्रयोजन खो कर लुप्त हो सकती है। इस तथ्य को जानते और समझते हुए भी अगर हम अपने वर्तमान व्यक्तिगत जीवन में शांति और स्थिरता के अभिलाषी हैं तो उपरोक्त चिंतन को ध्यान में रखते हुए भी अपनी शादी को तो सफल बना ही सकते हैं।
~ राजीव कृष्ण सक्सेना
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