तत्व चिंतनः भाग 4 – अच्छा क्या है बुरा क्या है? – राजीव कृष्ण सक्सेना

Let us review the age old question. What is right and what is wrong? There is a tendency in most of us to immediately pass moral judgment on any issue. May be we are right, but if we ponder over the issue for some time we realize that all issues can be examined from a variety of view points. This article discussed the evolution of the concept of right and wrong. Feed-backs are welcome at rajivksaxena@gmail.com – Rajiv Krishna Saxena

तत्व चिंतनः भाग 4 – अच्छा क्या है बुरा क्या है?

“यह भी कोई तरीका है?!”

मेरे एक मित्र कलकत्ते में आदमियों द्वारा खींचे जाने वाले रिक्शों पर नाराज हो रहे थे।

“एक आदमी आराम से बैठे और दूसरा उसको खींचे। लोग इसे सहन कैसे करते हैं इस प्रथा का तो एकदम निषेध होना चाहिये!”

मैंने मित्र से पूछा कि उनके घर में क्या नौकर चाकर हैं पता चला कि झाड़ू पोछा करने वाली और बर्तन साफ करने वाली नौकरानियां उनके घर काम करती हैं। इसमे कोई दो राय नहीं कि इस युग में कोई मनुष्य दूसरे मनुष्य को जबरदस्ती घेर घोट कर या कुछ सिक्के दे कर अपना कार्य करने पर मजबूर करे यह ठीक प्रतीत नहीं होता। यह आज के युग में दास प्रथा के अवशेष हैं। दास प्रथा का उन्मूलन अब काफी हद तक हो चुका है पर प्राचीन युगों में दास प्रथा लगभग सभी समाजों में आम थी। जार्ज वाशिंग्टन को अमरीका का राष्ट्रपिता कहा जाता है अमरीका की राजधानी उन्हीं के नाम पर है। जार्ज वाशिंग्टन के नेतृत्व में अमरीकी राष्ट्र ने इंगलैंड की सेना को परास्त कर स्वधीनता पाई। पर इतिहास बताता है कि वर्जीनिया स्थित अपने फार्म पर जार्ज वाशिंग्टन नीग्रो दास रखते थे और धड़ल्ले से दासों की खरीद फरोख्त करते थे। बाद के अमरीकी राष्ट्रपति थामस जैफरसन यद्यपि दास परंपरा के विराधी थे पर स्वयं कई दास रखते थे। राष्ट्रपति एब्राहम लिंकन अमरीका में अपनी ईमानदारी और चिंतनशीलता के लिये प्रसिद्ध हैं पर उनके कई व्यक्तव्यों से आभास मिलता है कि वे काले व्यक्तियों को श्वेतों के समकक्षी नहीं मानते थे और नीग्रो दासों को वापस अफ्रीका भिजवाने के हिमायती भी थे। तो क्या यह सभी अमरीकी राष्ट्रपति बुरे व्यक्ति थे?

एक युग चेतना होती है और उस युग के व्यक्ति उसी युग चेतना के अनुसार आचार व्यवहार करते हैं। एक युग मे प्रचलित प्रथा हो सकता है कि दूसरे युग के मापदण्डों पर खरी न उतरे। पर किसी भी युग में प्रचलित रीति रिवाजों को किसी और युग की कासौटी पर जांचना मेरे विचार में ठीक नहीं है। रीति रिवाज यूं ही नहीं बन जाते। उसके पीछे कारण होते हैं परिस्थितियां होती हैं‚ जो हो सकता है आज हमे मालूम न होंं। इसलिये किसी भी रीति रिवाज पर जल्दबाजी में नैतिक निर्णय न दें कि वह बहुत बुरा है और उसका पालन करने वाले भी बुरे व्यक्ति थे। क्या अच्छा है क्या बुरा इसके मापदण्ड हर युग में बदलते रहते है। अगर हम मानव इतिहास और मानव विकास को देखें तो इसके अनगिनित उदाहरण हमें मिल सकते हैं। जंगली जानवरों का शिकार पहले आम बात थी पर अब यह प्रायः वर्जित है। इंग्लैंड में सदियों से घुड़सवारों का शिकारी कुत्तों के साथ खरगोश और लोमड़ियों के शिकार की प्रथा थी जिसका इस युग में बहुत विरोध हो रहा है और इसे बंद कर देने के प्रयत्न जारी हैं। भारत में मदारी और सपेरे अनंत काल से बंदर भालू और सांप का खेल दिखाते आ रहे हैं पर अब इसका विरोध हो रहा है। सरकसों में भी जानवरों को घेर घोट कर काम करवाना अब बुरा समझा जाता है। इसी तरह मानव के एक दूसरे के प्रति व्यवहार के मापदण्डों में भी बहुत बदलाव आए हैं। बाल विवाह, बहुपत्निवाद, जातीय भेदभाव यह सब किसी समय किन्हीं समाजों में बिना किसी विरोध के होते थे। इस युग में इनका कड़ा विरोध होता है। इसी तरहा आगे आने वाले युगों में आजकल प्रचलित कई प्रथाएं भी बुरी समझी जाएंगी और कई प्रथाएं जो आजकल बुरी समझी जाती हैं वे ठीक समझी जाने लगेंगी। अपने जीवन काल में ही हमने तलाक और बिना शादी के साथ रहने जैसी प्रथाओं की अमान्यता को धराशाही होते देखा है।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या कुछ ऐसा भी है जो अपने आप में अच्छा है या बुरा है और हर युग में वैसा ही रहता है। इसको समझने के लिये हमे मानव के उदगम् और अच्छे बुरे की कल्पना के उदगम् की ही जांच करनी होगी। जीव विज्ञान की दृष्टि से मानव विकास जीव जंतुओं से हुआ है। यह विचार कई व्यक्तियों को अटपटा लगता है पर वैज्ञानिक तथ्य इस विचार को बल देते हैं। पहले पहल पृथिवी पर एक कोशिका वाले जीवों का‚ जो कि सूक्ष्मदर्शी यंत्र से ही देखे जा सकते हैं, अनायास ही उदगाम् हुआ। यह करीब डेढ़ सौ करोड़ वर्ष पहले की बात है। फिर एक कोशिका वाले जीवों से कई कोशिकाओं वाले जीवों का विकास हुआ। फिर डारविन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार अन्य जीवों और बनस्पतियों का विकास हुआ। इस सिद्धांत की और मानव विकास की गुत्थी पर बाद में फिर कभी विचार करेंगे पर अभी यह देखते हैं कि मानव का उदगम् जो कि लगभग दस लाख वर्ष पहले ही हुआ है क्या उससे पहले भी अच्छे बुरे का का कुछ अस्तित्व था।अच्छा बुरा मा्र्रत्र मानवी धारणाएं हैं या मानव से पहले उत्पन्न हुए जीवों में भी ऐसी अवधारणा के सबूत हैं।

मानव से पहले उपजित जीव जंतु अपनी सहज वृत्तियों के अनुसार जीते हैं और यह सहज वृत्तियां उन्हें आनुवंशिक धरोहर के रूप में माता पिता से मिलती हैं। उनके जीवन जीने की प्रक्रिया उनकी जीन्स ह्यग्एन्एस्हृ से मर्यादित होती हैं और उनकी स्वयं की सोच कुछ नहीं होती। उनकी सहज वृत्तियां उन्हें प्रेरित करती हैं कि वे जीने के लिये लगातार खाना ढूंढें और दूसरे जीवों को मार कर खाएं। स्वयं दूसरे जंतुओं से अपने बचाव के लिये लड़ें या तेजी से भाग कर जान बचाएं।यथा समय प्रजनन की क्रिया से बच्चे पैदा करें और बच्चों की आत्म निर्भर होने तक उनकी देख रेख करें। यही क्र्रियाएं उनकी नस्ल को जीवित रख सकती हैं। इनमें से किसी भी कार्य में असफल होने पर नस्ल को लुप्त हो जाना पड़ता है। जो भी जीव जंतुु हम देखते हैं उनका अस्तित्व इसी लिये है कि वे इन मूलभूत प्रक्रियाओं में सफल रहे हैं। वस्तुतः इन प्रक्र्रियाओं में सफल होना ही उनके लिये अच्छा है और असफल होना बुरा। इसके सिवाय अच्छे बुरे का कोई मतलब जीव जंतुओं के लिये नहीं होता। क्योंकि मानव विकास इन जीवों से ही हुआ है हम में भी यही सब सहज वृत्तियां प्राकृतिक रूप से भरी हुइ हैं। हमारे जीवन में भी खाना ढूंढना स्वयं की रक्षा करना यथासमय सहचर या सहचरी ढूंढ कर वंश वृद्धि के लिये संतान उत्पन्न करना और फिर बच्चों की परवरिश यही जीवन के मूल कार्यकलाप हैं। एक तरह से हमारे जीवन का कार्यक्र्रम अन्य जीवों से कुछ खास भिन्न नहीं है। पर एक बहुत बड़ा अंतर है। आइये इस पर गौर करें।

प्रकृति की दृष्टि से देखें तो आदमी भी जीवों की ही एक नस्ल है। यह नस्ल जीवित रही यह एक तरह से आश्चर्यजनक बात है। आदमी में न तो ज्यादा शक्ति ही है ना ही वह तेजी से भाग कर जान बचा सकता है। ना ही उसके पास लड़ने के लिये सींग या नाखून हैं ना ही तीखे दांत। सर्दी से बचने के लिये उसके शरीर पर घने बाल भी नहीं हैं। फिर मानव प्रजाति कैसे जीवित रही। सच तो यह है कि विकास क्र्रिया ने मानव जाति को अनायास ही एक ऐसी शक्तिशाली वस्तु उपलब्ध करा दी जिससे न केवल उसकी नस्ल जीवित रही पर वह शनैः शनैः सारे जीव जंतुओं की सिरमौर बन गई। वह वस्तु है बुद्धि।कुछ सीमा तक बुद्धि अन्य जानवरों में भी होती है पर जीव विकास क्रम में मानवीय बुद्धि का विकास एक बड़ी अदभुद घटना थी। एक ऐसी निराली घटना थी कि मानव प्रजाति जीने की क्षमता में अन्य जीवों से अचानक ही बहुत ऊंची निकल गई। मानव ही अपनी बुद्धि से समस्याओं का समाधान खोज सकता है और आगे के लिये अपने बच्चों को सिखा भी सकता है। बचाव की तरकीबों के लिये वह मात्र सहज वृत्तियों पर निर्भर नहीं है। उसने आग जलाना सीखा, अस्त्र शस्त्र बनाने सीखे, वस्त्र बना कर पहने और घर बना कर उसमे रहना शुरू किया। उसने अन्न उगाना सीखा और अन्य जानवरोंं को पालतू बना कर उनसे काम लेना भी शुरू किया। और सबसे बड़ी बात कि उसने भाषा का अविष्कार किया और पढ़ना लिखना सीखा। जरा सोचिये कहां तो जीव विकास में विकास क्रिया से प्रकृति में बिखरे विभिन्न विलक्षण जीव जंतु बनने में सैकड़ो करोड़ वर्ष लगे। और पिछले अपेक्षाकृत बहुत ही सीमित समय में मनुष्य अपनी बुद्धि के प्रयोग से कहां का कहां पहुंच गया।

पर जहां एक ओर इस बुद्धि से हमने प्रकृति को जीता और अप्रत्याशित ऊंचाइयों का छुआ‚ कुछ मामलों में यही बुद्धि एक अभिशाप भी सिद्ध हुई। बुद्धि के साथ साथ उसही बहन चिंता भी आई। चिंता तभी होती है जब बुद्धि होती है। बुद्धि से आदमी घर बार और संपत्ति बनाता है और उनके लिये चिंता करता है। जानवर चिंता नहीं करते। कल भोजन कहां से मिलेगा या फसल और व्यापार कैसे चलेंगे इन बातों से जानवर पूर्णतः बेखबर होते हैं। सहज वृत्तियों से जीवन बिताते हैं और फिर समय आने पर मर जाते है।पर हम अपने मूल प्रश्न पर आएं तो अब हम समझ सकते हैं कि अच्छा क्या है और बुरा क्या‚ यह भी बुद्धि के आयाम ही हैं। जानवरों में बुद्धि न होने से अच्छे बुरे का प्रश्न भी नहीं उठता।वस्तुतः प्रकृति में अपने आप में कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं है। अच्छे और बुरे के रंग तभी दिखाई देते हैं जब बुद्धि का चश्मा लगा कर हम दुनियां को देखते हैं।

 

मजेदार बात तो यह है कि बुद्धि का चश्मा एक ही कर्म को किसी को अच्छा और किसी को बुरा दिखा सकता है। आप कहेंगे कि एक मनुष्य दूसरे का वध करे यह बुरी बात है। पर युद्ध क्षेत्र में जो सैनिक शत्रुओं का वध करता है उसका मान बढ़ता है। प्रेमी प्रेमिका चोरी छुपे मिलें यह उन दोनो के लिये बहुत आनंद दायक बात है पर प्रेमिका के पिताश्री के लिय यह हृदय के दौरे का निमंत्रण हो सकती है। जानवरों को मार कर खाना कुछ लोगों को ठीक प्रतीत होता है पर कुछों की दृष्टि में यह जघन्य पाप है। शिक्षण संस्थानों मे विशेष जनजातियों के लिये आरक्षण कुछ लोगों को अच्छा लगता है कुछ को बुरा। अंततः निशकर्ष यही निकलता है कि अपने आप में कोई कर्म अच्छा या बुरा नहीं होता। यह तो बस देखने वाले की दृष्टि पर निर्भर करता है‚ युग चेतना पर निर्भर करता है और मनुष्य के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। गीता में कृष्ण अर्जुन को यही बात समझते हैः

 

क्या अकर्म क्या कर्म‚ नहीं यह भेद ज्ञानियों ने भी जाना
बतलाता हूं यह रहस्य‚ सुन इसे अशुभ से तू तर जाना
गीता काव्य माधुरी 4•16

कर्म‚ अकर्म‚ विकर्मों मे जो भेद निहित है‚ उसे जान ले
कर्मों की गति गहन बहुत है‚ इसे समझ ले‚ इसे भान ले
गीता काव्य माधुरी 4•17

कर्मों मे अकर्म को देखे‚ कर्म अकर्मों मे भी माने
योग­युक्त ऐसा ही ज्ञानी‚ पूर्ण सत्य कर्मों का जाने
गीता काव्य माधुरी 4•18

यह बात समझ आ जाए तो मनुष्य को एक आंतरिक शांति प्राप्त होती है। वह व्यर्थ उलझनो में पड़ने से बच जाता है। अगर आप आध्यात्मिक प्रगति करना चाहते हैं मानसिक शांति की ओर बढ़ना चाहते हैं तो आपको यह दृष्टिकोण अपनाना ही होगा।

~राजीव कृष्ण सक्सेना 

Further reading links: 

तत्व चिंतन: भाग 1 – तत्व चिंतन की आवश्यकता

तत्व चिंतनः भाग 2 – भारतीय धर्मों की मूल धारणाएं

तत्व चिंतनः भाग 3 ­- कौन सा रस्ता लें?

तत्व चिंतनः भाग 4 – अच्छा क्या है बुरा क्या है?

तत्व चिंतनः भाग 5 – नई दुनियां, पुरानी दुनियां

तत्वचिंतनः भाग 6 – जीवन का ध्येय

तत्वचिंतनः भाग 7– भाग्यशाली हैं आस्थावान

तत्वचिंतनः भाग 8 ­बुद्धि : वरदान या अभिशाप

तत्वचिंतनः भाग 9 – फलसफा शादी का 

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